कुण्डलिनी का महत्त्व

 

सशैलवनधात्रीणां यथा धारोऽहिनायक: ।

सर्वेषां योगतन्त्राणां तथा धारो हि कुण्डली ।। 1 ।।

 

भावार्थ :- जिस प्रकार शेषनाग को वन पर्वतों सहित पूरी पृथ्वी का आधार माना जाता है । ठीक उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति को सभी योग व तन्त्रों का आधार माना जाता है ।

 

सुप्ता गुरुप्रसादेन यदा जागर्ति कुण्डली ।

तदा सर्वाणि पद्मानि भिद्यन्ते ग्रन्थयोऽपि च ।। 2 ।।

 

भावार्थ :- गुरु की विशेष कृपा या आशीर्वाद से जब साधक की सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति में चेतना आ जाती है अर्थात वह जाग्रत हो जाती है । तब साधक के सभी चक्र व ग्रन्थियाँ भी खुल जाती हैं । अर्थात उनमें भी ऊर्जा का संचार हो जाता है ।

 

प्राणस्य शून्यपदवी तदा राजपथायते ।

तदा चित्तं निरालम्बं तदा कालस्य वञ्चनम् ।। 3 ।।

 

भावार्थ :- सुषुम्ना नाड़ी प्राण के लिए शून्य अर्थात सुख को देने वाली व प्राण के प्रवाह का मुख्य मार्ग बन जाती है । तब साधक का चित्त आश्रय रहित हो जाता है अर्थात उसमें किसी भी प्रकार की वृत्ति शेष नहीं रहती । और तब न ही उसे मृत्यु का भय रहता है ।

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