आत्मा घटस्थचैतन्यमद्वैतं शाश्वतं परम् ।

घटादिभिन्नतो ज्ञात्वा वीतरागं विवासनम् ।। 20 ।।

 

भावार्थ :-  इस शरीर में स्थित आत्मा ( चैतन्य ) ही परम शाश्वत अर्थात् सत्य और अद्वैत ( एक ही भाव से युक्त ) है । इसे ( आत्मा को ) शरीर से अलग जानने से ही साधक राग व वासना से रहित होता है ।

 

 

 

एवं विधि: समाधि: स्यात् सर्वङ्कल्पवर्जित: ।

स्वदेहे पुन्नदारादिबान्धवेषु धनादिषु ।

सर्वेषु निर्ममो भूत्वा समाधिं समवाप्नुयात् ।। 21 ।।

 

भावार्थ :-  इस प्रकार यह समाधि सभी प्रकार के संकल्पों से रहित होती है । इसलिए साधक को अपने शरीर, पुत्र, स्त्री, मित्र, सहयोगियों व धन आदि के प्रति ममता रहित ( आसक्ति रहित ) होकर समाधि को प्राप्त करना चाहिए ।

 

 

विशेष :-  समाधि भाव को प्राप्त करने के लिए साधक को किन- किन आसक्तियों से रहित होना जरूरी है ? उत्तर है अपने शरीर, पुत्र, स्त्री, मित्र, सहयोगी व धन की आसक्ति से रहित होना आवश्यक है ।

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