पञ्चधारणा मुद्रा वर्णन
कथिता शाम्भवी मुद्रा श्रृणुष्व पञ्चधारणाम् ।
धारणानि समासाद्य किं न सिद्धयति भूतले ।। 68 ।।
अनेन नरदेहेन स्वर्गेषु गमनागमम् ।
मनोगतिर्भवेत्तस्य खेचरत्वं न चान्यथा ।। 69 ।।
भावार्थ :- इस प्रकार पिछले श्लोक में शाम्भवी मुद्रा का वर्णन किया गया है । अब पञ्च धारणा मुद्रा के वर्णन को सुनो । साधक द्वारा इन पंच धारणाओं को साधने ( प्राप्त करने से ) के बाद उसके लिए इस पृथ्वी पर कुछ भी अप्राप्य ( जिसको प्राप्त नहीं किया जा सकता ) नहीं रहता अर्थात् उसके लिए सब कुछ सम्भव होता है ।
इन धारणाओं में सिद्धि प्राप्त करने के बाद मनुष्य के शरीर का स्वर्ग में आवागमन ( आना- जाना ) उसके मन की गति के समान अर्थात् तीव्र गति वाला ही हो जाता है । इसके अलावा उसमें आकाश गमन की सिद्ध भी आ जाती है, इसके अलावा नहीं ।
विशेष :- पञ्च धारणाओं के विषय में सबसे पहले यही पूछा जा सकता है कि यह पञ्च धारणाएँ कौन- कौन सी हैं ? जिसका उत्तर है – पार्थिवी धारणा, आम्भसी धारणा, आग्नेयी धारणा, वायवीय धारणा व आकाशी धारणा ।
पार्थिवी धारणा मुद्रा विधि
यत्तत्त्वंहरितालदेशरचितं भौमं लकारान्वितं वेदास्तं कमलासनेन सहितं कृत्वा हृदि स्थायिनम् ।
प्राणांस्तत्र विलीय पञ्चघटिकांश्चित्ता त्विन्तां धारयेत् ऐषास्तम्भकरी भवेत् क्षितिजयं कुर्यादधोधारणा ।। 70 ।।
भावार्थ :- जिसका अन्त:प्रदेश अर्थात् मूलभाग ‘पीले’ रंग से रंगा हुआ भाग जो ‘लँ’ अर्थात् ‘लकार’ नामक बीज अक्षर से युक्त है । जिसका तत्त्व पृथ्वी है, जिसके चार कोण हैं । वेद जिसके हाथ हैं । उसमें कमल के फूल पर बैठे ब्रह्मा को अपने हृदय में धारण करते हुए उसका ध्यान करें । फिर अपनी प्राणवायु को शरीर के अन्दर लेकर उसे पाँच घटी अर्थात् दो घण्टे तक अन्दर ही रोककर चित्त में स्थिर करें । इसे स्तम्भकारी अधोधारणा भी कहा जाता है । इसका अभ्यास करने से साधक पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर लेता है ।
विशेष :- इस पार्थिवी धारणा के सम्बन्ध में काफी प्रश्न पूछे जा सकते हैं । जैसे – इस धारणा का तत्त्व कौनसा है ? उत्तर है पृथ्वी । इस धारणा का रंग कौनसा कहा गया है ? उत्तर है पीला । इसका बीज अक्षर क्या है ? उत्तर है ‘लँ’ अथवा लकार । इस धारणा का सम्बंध किस चक्र से होता है ? उत्तर है मूलाधार चक्र । इस मुद्रा का देवता किसे माना गया है ? उत्तर है ब्रह्मा । एक घटी कितने मिनट की होती है ? उत्तर है चौबीस ( 24 ) मिनट की ।
पार्थिवी धारणा मुद्रा का फल
पार्थिवीधारणामुद्रां य: करोति च नित्यशः ।
मृत्युञ्जय: स्वयं सोऽपि स सिद्धो विचरेद् भुवि ।। 71 ।।
भावार्थ :- जो भी साधक नित्य प्रति पार्थिवी धारणा मुद्रा का अभ्यास करता है । वह मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लेता है और वह इस पृथ्वी पर सिद्ध पुरुष की भाँति विचरण ( घूमता ) करता रहता है ।
ॐ गुरुदेव!
आपका हृदय से आभार ।
अति उत्तम व्याख्या आर्य जी