महाबन्ध वर्णन

 

वामपादस्य गुल्फेन पायुमूलं निरोधयेत् ।

दक्षपादेन तद्गुल्फं संपीड्य यत्नतः सुधी: ।। 18 ।।

शनै: शनैश्चालयेत् पार्ष्णिं योनिमाकुञ्चयेच्छन: ।

जालन्धरे धारयेत् प्राणं महाबन्धो निगद्यते ।। 19 ।।

 

भावार्थ :-  बायें पैर की एड़ी से गुदामार्ग को दबाकर उसका निरोध करते हुए दायें पैर की एड़ी से योनिस्थान को प्रयास पूर्वक दबाएं । इसके बाद धीरे- धीरे से गुदास्थान व योनिस्थान का आकुंचन ( उसे सिकोड़ें ) करे । इसके साथ ही प्राणवायु को शरीर के अन्दर रोकते हुए जालन्धर बन्ध लगाएं । इस विधि को महाबन्ध कहा गया है ।

 

 

विशेष :-  ऊपर वर्णित महाबन्ध की विधि में मूलबन्ध व जालन्धर बन्ध की विधियाँ ही प्रयोग की गई हैं । उड्डीयान बन्ध का इसमें प्रयोग नहीं किया गया है ।

 

 

महाबन्ध फल

 

महाबन्ध: परो बन्धो जरामरणनाशन: ।

प्रसादादस्य बन्धस्य साधयेत् सर्ववाञ्छितम् ।। 20 ।।

 

भावार्थ :- महाबन्ध मुद्रा के अभ्यास से बुढ़ापा व मृत्यु का नाश होता है । महाबन्ध को सभी बन्धों में श्रेष्ठ माना गया है । इस मुद्रा के प्रभाव से साधक की सभी इच्छाएँ ( कामनाएँ ) पूर्ण होती हैं ।

 

 

विशेष :-  महाबन्ध मुद्रा मृत्यु व बुढ़ापा दोनों का नाश करता है । इसे केवल सभी बन्धों में श्रेष्ठ माना गया है न कि सभी मुद्राओं में । इससे साधक की सभी कामनाएँ भी पूर्ण होती हैं । यह सब परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी है ।

 

 

महावेध की उपयोगिता

 

रूपयौवनलावण्यं नारीणां पुरुषं विना ।

मूलबन्धमहाबन्धौ महावेधं विना तथा ।। 21 ।।

 

भावार्थ :- जिस प्रकार पुरुष के बिना नारी के रूप ( सुन्दर रंग ), यौवन ( जवानी ) व लावण्य ( मनमोहक सुंदरता ) का का कोई महत्त्व नहीं है अर्थात् पुरुष के बिना यह सब निरर्थक होता है । ठीक उसी प्रकार महावेध मुद्रा के बिना मूलबन्ध व महाबन्ध का कोई महत्त्व नहीं है अर्थात् महावेध के बिना मूलबन्ध व महाबन्ध का अभ्यास करना निरर्थक है ।

 

 

विशेष :- इस श्लोक में महावेध मुद्रा के महत्त्व को बताया गया है । परीक्षा की दृष्टि से यह पूछा जा सकता है कि किस मुद्रा का अभ्यास किये बिना मूलबन्ध व महाबन्ध मुद्रा को निरर्थक अथवा फलहीन बताया गया है ? जिसका उत्तर है महावेध मुद्रा ।

 

 

महावेध मुद्रा विधि

 

महाबन्धं समासाद्य उड्डानकुम्भकं चरेत् ।

महावेध: समाख्यातो योगिनां सिद्धिदायक: ।। 22 ।।

 

भावार्थ :- पहले साधक महाबन्ध मुद्रा की स्थिति में बैठे इसके बाद उड्डीयान बन्ध को लगाते हुए कुम्भक ( प्राणवायु को बाहर रोकें ) का अभ्यास करें । इस प्रकार यह महावेध मुद्रा कहलाती है । जो योगियों को सिद्धि प्रदान करती है ।

 

 

विशेष :- महावेध मुद्रा में उड्डीयान बन्ध, जालन्धर बन्ध व मूलबन्ध तीनों बन्धों का प्रयोग किया जाता है । परीक्षा में इससे सम्बंधित प्रश्न पूछा जा सकता है कि किस मुद्रा में तीनों बन्ध एक साथ लगाए जाते हैं ? जिसका उत्तर है महावेध मुद्रा ।

 

महावेध मुद्रा का फल

 

महाबन्धमूलबन्धौ महावेध समन्वितौ ।

प्रत्यहं कुरुते यस्तु स योगी योगवित्तम: ।। 23 ।।

न मृत्युतो भयं तस्य न जरा तस्य विद्यते ।

गोपनीय: प्रयत्नेन वेधायं योगिपुङ्गवै: ।। 24 ।।

 

भावार्थ :- जो योग साधक प्रतिदिन मूलबन्ध व महाबन्ध के साथ महावेध मुद्रा का अभ्यास करता है, वह योग का ज्ञानी अथवा श्रेष्ठ योगी कहलाता है । जिसे न तो कभी बुढ़ापा सताता है और न ही वह कभी मृत्यु से भयभीत होता है । तभी सभी श्रेष्ठ योगियों ने महावेध मुद्रा की विधि को प्रयत्नपूर्वक गोपनीय रखने की बात कही है ।

 

 

विशेष :- महावेध मुद्रा करने वाले योगी को श्रेष्ठ योगी माना गया है । इसके अलावा यह मुद्रा बुढ़ापा व मृत्यु के प्रभाव को खत्म कर देती है ।

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  1. ॐ गुरुदेव!
    अत्यंत ही उत्तम व्याख्या ।
    आपको हृदय से आभार।

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