गरुड़ासन वर्णन
जंघोंरुभ्यां धरां पीड्य स्थिरकायो द्विजानुनी ।
जानूपरि करयुग्मं गरुड़ासनमुच्यते ।। 36 ।।
भावार्थ :- दोनों जाँघों व घुटनों से भूमि को दबाते हुए दोनों हाथों घुटनों के ऊपर हाथों को टिकाकर रखना गरुड़ासन कहलाता है ।
विशेष :- गरुड़ासन में गरुड़ शब्द का अर्थ गरुड़ नामक पक्षी होता है । जिसे हम इंग्लिश में ईगल व हिन्दी में बाज कहते हैं । लेकिन यहाँ पर गरुड़ासन की जिस विधि का वर्णन किया गया है और जो वर्तमान समय में गरुड़ासन की प्रचलित विधि है । इन दोनों में बहुत अन्तर है ।
वृषासन वर्णन
याम्यगुल्फे पायुमूलं वामभागे पदेतरम् ।
विपरीतं स्पृशेद् भूमिं वृषासनमिदं भवेत् ।। 37 ।।
भावार्थ :- दायें पैर की एड़ी को गुदाद्वार पर रखकर बायें पैर को मोड़ते हुए भूमि पर उसका स्पर्श करें । यह वृषासन कहलाता है ।
शलभासन वर्णन
अधास्य शेते करयुग्मं वक्षे भूमिमवष्टभ्य करयोस्तलाभ्याम् ।
पादौ च शून्ये च वितस्ति चोर्ध्वंवदन्ति पीठं शलभं मुनीन्द्रा: ।। 38 ।।
भावार्थ :- पहले भूमि पर पेट के बल लेटकर दोनों हाथों की हथेलियों को छाती के नीचे जमीन की ओर करें । अब मुख को नीचे की तरफ रखते हुए दोनों पैरों को ऊपर आकाश की ओर लगभग एक बिलात ( 9 से 12 इंच तक ) उठाएं । श्रेष्ठ योगी मुनियों ने इसे शलभासन का नाम दिया है ।
विशेष :- शलभासन में शलभ शब्द का अर्थ टिड्डी नामक कीट होता है । जो पीछे से थोड़ा उठा रहता है । इसी कारण इस आसन का नाम शलभासन पड़ा है । यह परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी है ।
मकरासन वर्णन
अधास्य शेते हृदयं निधाय भूमौ च पादौ च प्रसार्यमाणौ ।
शिरे च धृत्वा करदण्डयुग्मे देहाग्निकारं मकरासनं तत् ।। 39 ।।
भावार्थ :- हृदय प्रदेश को नीचे रखते हुए पेट के बल लेटकर दोनों पैरों को पीछे की ओर डण्डे की तरह सीधा फैलाएं । इसके बाद दोनों हाथों की हथेलियों पर अपने माथे को रखें । इस स्थिति को मकरासन कहा गया है । इस मकरासन के अभ्यास से साधक की जठराग्नि प्रदीप्त ( तीव्र ) होती है ।
विशेष :- मकर का अर्थ होता है मगरमच्छ । जब मगरमच्छ आराम करता है तो वह इसी अवस्था में रहता है साथ ही मगरमच्छ की पाचन शक्ति बहुत अच्छी होती है । इसलिए मगरमच्छ के जैसी अवस्था होने व उस जैसी पाचन शक्ति होने के कारण इसे मकरासन का नाम दिया गया है ।
उष्ट्रासन वर्णन
अधास्य शेते पदयुग्मव्यस्तं पृष्ठे निधायापि धृतं कराभ्याम् ।
आकुञ्चयेत्सम्यगुदरास्यगाढमौष्ट्रञ्च पीठं योगिनो वदन्ति ।। 40 ।।
भावार्थ :- अपने मुख को नीचे ( पीछे की ओर ) करते हुए दोनों पैरों को पीछे की ओर करते हुए अलग- अलग खोलें । दोनों हाथों को घुमाते हुए पैरों को पकड़ें । इस अवस्था में पेट को अधिक से अधिक अन्दर की तरफ सिकोड़ें । इस स्थिति को योगीजनों ने उष्ट्रासन कहा है ।
विशेष :- उष्ट्रासन में उष्ट्र शब्द का अर्थ ऊँट होता है । ऊँट के समान आकृति होने के कारण इसे उष्ट्रासन कहा जाता है ।
भुजंगासन वर्णन
अङ्गुष्ठनाभिपर्यन्तमधोभूमौ विनिन्यसेत् ।
करतलाभ्यां धरां धृत्वा ऊर्ध्वंशीर्ष: फणीव हि ।। 41 ।।
देहाग्निर्वर्द्धते नित्यं सर्वरोगविनाशनम् ।
जागर्ति भुजनी देवी भुजंगासनसाधनात् ।। 42 ।।
भावार्थ :- दोनों हाथों की हथेलियों को जमीन में रखकर नाभि तक के शरीर को सिर समेत साँप के समान ( जिस प्रकार साँप अपने फण को उठाता है ) ऊपर की ओर उठाएं । दोनों हाथों के अँगूठे नाभि की ओर अथवा उसके समीप होने चाहिए । इस स्थिति को भुजंगासन कहते हैं । भुजंगासन का अभ्यास करने से साधक की जठराग्नि प्रतिदिन तीव्र होती जाती है । इससे सभी रोग नष्ट हो जाते हैं । इसके अलावा भुजंगासन की साधना करने से भुजंगी देवी ( कुण्डलिनी शक्ति ) जागृत होती है ।
विशेष :- भुजंग शब्द का अर्थ साँप होता है । साँप को ही संस्कृत भाषा में भुजंग बोला जाता है । इसमें शरीर की स्थिति साँप की भाँति होने से इसे भुजंगासन कहा जाता है । इसके अभ्यास से साधक की कुण्डलिनी शक्ति भी जागृत होती है । यह परीक्षा की दृष्टि से काफी उपयोगी जानकारी है ।
योगासन वर्णन
उत्तानौ चरणौ कृत्वा संस्थाप्य जानुनोपरि ।
आसनोपरि संस्थाप्य उत्तानं करयुग्मकम् ।। 43 ।।
पूरकैर्वायुमाकृष्य नासाग्रमवलोकयेत् ।
योगासनं भवेदेतद्योगिनां योगसाधने ।। 44 ।।
भावार्थ :- दोनों पैरों के तलवों को ऊपर की ओर करते हुए अपनी जाँघों पर रखें । अब दोनों हाथों की हथेलियों को ऊपर की ओर ( सीधी ) करते हुए पैरों पर रखें । इसके बाद श्वास को शरीर के अन्दर भरकर नासिका के अग्रभाग ( अगले हिस्से ) को देखना चाहिए । योगियों ने इसे योग साधना को साधने ( सफलता दिलाने वाला ) वाला कहते हुए योगासन का नाम दिया है ।
।। इति द्वितीयोपदेश: समाप्त: ।।
इसी के साथ घेरण्ड संहिता का दूसरा अध्याय ( आसन वर्णन ) समाप्त हुआ ।
Guru ji nice explain.
धन्यवाद।
ॐ गुरुदेव!
अति सुंदर व्याख्या।
आपका ह्रदय से आभार।
Thanks sir