लौलिकी / नौलि क्रिया विधि व लाभ
लौलिकी शब्द लोल शब्द से बना है । जिसका अर्थ है पेट को घुमाना । लौलिकी को नौलि क्रिया भी कहा जाता है । यह षट्कर्म का चौथा अंग है । इससे हमारे पांचन तन्त्र की शुद्धि होती है । यह हमारे पांचन संस्थान के सभी आन्तरिक अंगों को मजबूत करने का काम करती है ।
अमन्दवेगेतुन्दञ्च भ्रामयेदुभपार्श्वयो: ।
सर्वरोगान्निहन्तीह देहानलविवर्द्धनम् ।। 53 ।।
भावार्थ :- पेट को पूरी तेज गति के साथ दोनों तरफ ( दायें से बायीं व बायें से दायीं ओर ) घुमाना लौकिकी अर्थात् नौलि क्रिया कहलाती है । इसके निरन्तर अभ्यास से यह साधक के सभी रोगों का नाश करती है । इसके साथ ही यह शरीर में स्थित जठराग्नि को बढ़ाती है । जिससे साधक का पाचन तंत्र मजबूत होता है ।
विशेष :- नौलि के विषय में कुछ आचार्यों ने इसके चार प्रकारों का वर्णन करके एक नये विवाद को जन्म दे दिया है कि नौलि के कितने प्रकार माने गए हैं ? अब यदि हम हठयोग के ग्रन्थों के अनुसार इसका उत्तर देखते हैं तो पता चलता है कि नौलि के एक ही प्रकार का वर्णन ग्रन्थकारों ने किया है । जबकि हम किसी से भी इस विषय में पूछते हैं तो हमें इसका उत्तर चार मिलता है । अब प्रश्न यह उठता है कि इसका वास्तविक उत्तर क्या होना चाहिए ? यदि हम इसे ग्रन्थों के अनुसार देखते हैं तो इसका उत्तर हमें यही मिलता है कि नौलि एक ही प्रकार की होती है । इसके चार प्रकारों का वर्णन आधुनिक योग आचार्यों ने अपने मतानुसार किया है । जो अपनी जगह बिलकुल सही व सटीक है । लेकिन उसको इस प्रकार से प्रस्तुत किया गया है कि हठयोग के ग्रन्थों के अनुसार भी इसके चार ही प्रकार हैं । जबकि ऐसा नहीं है । अतः मेरा उन सभी आचार्यों से अनुरोध है कि इन सभी प्रकारों को अपना निजी मत बताकर विषय को स्पष्ट करने का कष्ट करें । ताकि विद्यार्थियों में किसी भी प्रकार की कोई भ्रम की स्थिति उत्पन्न न हो ।
त्राटक क्रिया
त्राटक क्रिया को महर्षि घेरन्ड ने षट्कर्म के पाँचवें अंग के रूप में माना है । यह मुख्य रूप से हमारे नेत्रों ( आँखों ) की शुद्धि करता है । साथ ही एकाग्रता के लिए भी यह अति महत्त्वपूर्ण होता है ।
निमेषोन्मेषकं त्यक्त्वा सूक्ष्मलक्ष्यं निरीक्षयेत् ।
पतन्ति यावदश्रूणि त्राटकं प्रोच्यते बुधै: ।। 54 ।।
भावार्थ :- आँखों को खोलने और बन्द करने की प्रक्रिया को रोककर, एक सूक्ष्म लक्ष्य की तरफ तब तक टकटकी लगाकर देखते रहना चाहिए जब तक कि आँखों से आंसू न बहने लगें । इस क्रिया को विद्वानों ने त्राटक कहा है ।
विशेष :- त्राटक का अभ्यास करते हुए साधक किसी भी एक लक्ष्य की ओर ध्यान लगा सकता है । उसमें दीपक, मोमबत्ती की लौ अथवा कोई एक छोटे बिन्दु आदि कुछ भी हो सकता है ।
कुछ आधुनिक योग आचार्यों ने त्राटक के तीन भेद किये हैं । जो इस प्रकार हैं :- 1. बाह्य त्राटक, 2. आभ्यंतर त्राटक, 3. अधोत्राटक । ये त्राटक के प्रकार किसी एक आचार्य के अनुसार हो सकते हैं । लेकिन इनका वर्णन हठयोग के किसी ग्रन्थ ( हठ प्रदीपिका व घेरण्ड संहिता ) में नहीं किया गया है । जब भी मैं किसी विद्यार्थी से पूछता हूँ कि त्राटक के कितने प्रकारों का वर्णन हठ प्रदीपिका अथवा घेरण्ड संहिता में किया गया है ? तो ज्यादातर विद्यार्थी कहते हैं कि हठ प्रदीपिका व घेरण्ड संहिता में त्राटक के तीन प्रकारों का वर्णन किया गया है । जिनमें वह ऊपर वर्णित तीनों प्रकारों को ही बताते हैं । जबकि यह गलत उत्तर है । इसके पीछे मैं यह नहीं कहना चाहता कि उन आचार्यों द्वारा बताए गए त्राटक के तीन प्रकार गलत है या उनका कोई औचित्य नहीं है । बल्कि मैं यहाँ पर सभी विद्यार्थियों को यह बताने का प्रयास कर रहा हूँ कि हठ प्रदीपिका व घेरण्ड संहिता में त्राटक के केवल एक ही प्रकार का वर्णन किया गया है तीन प्रकारों का नहीं । त्राटक के तीन प्रकार किसी आचार्य का अपना स्वयं का मत हो सकता है । इसी प्रकार नौलि के सम्बन्ध में भी कई आचार्यों का मानना है कि नौलि के चार प्रकार होते हैं । लेकिन हठ प्रदीपिका व घेरण्ड संहिता दोनों ही ग्रन्थों में नौलि के एक ही प्रकार का वर्णन किया गया है । नौलि के चार प्रकार का मत किसी आचार्य का निजी मत हो सकता है । उसको स्वामी स्वात्माराम व महर्षि घेरण्ड का मत बताकर विद्यार्थियों को भ्रमित करना बिलकुल अनुचित है । जिस प्रकार मैंने नेति क्रिया के प्रकरण में अपना मत बता कर रबड़नेति को हानिकारक बताया है । साथ ही जलनेति, घृतनेति, तेलनेति व दुग्धनेति के बारे में अपना मत स्पष्ट किया है । वह मेरा अपना मत है । उसका हठ प्रदीपिका व घेरण्ड संहिता से कोई लेना देना नहीं है ।
ठीक उसी प्रकार यहाँ पर भी योग के आधुनिक आचार्यों को इस प्रकार किसी भी क्रिया के प्रकार बताते हुए यह स्पष्ट करना चाहिए कि यह हमारा मत अथवा विचार है । ऐसा करने से विद्यार्थियों में किसी प्रकार का कोई संशय नहीं रहेगा । जिससे परीक्षा के समय पर वह यौगिक ग्रन्थों के अनुसार ही प्रश्न का सही उत्तर देंगे । इससे किसी तरह का कोई सन्देह नहीं रहेगा ।
त्राटक क्रिया के लाभ
एवमभ्यासयोगेन शाम्भवी जायते ध्रुवम् ।
नेत्ररोगा विनश्यन्ति दिव्यदृष्टि: प्रजायते ।। 55 ।।
भावार्थ :- त्राटक क्रिया के अभ्यास से योगी को निश्चित रूप से शाम्भवी मुद्रा की प्राप्ति होती है । सभी नेत्र रोग समाप्त होते हैं और साथ ही दिव्य दृष्टि भी प्राप्त होती है ।
विशेष :- परीक्षा की दृष्टि से त्राटक के सम्बन्ध में यह पूछा जा सकता है कि त्राटक क्रिया के फल के रूप में साधक को कौन सी मुद्रा की सिद्ध प्राप्त होती है ? जिसका उत्तर शाम्भवी मुद्रा है ।
सुंदर विवेचन । धन्यवाद।
ॐ गुरुदेव!
अति सुन्दर व्याख्या।
आपको हृदय से आभार।
Namaste!
Gurubhyo Namah!
Regarding,
Shloka 53,
My view on types of Nauli, how it has created this types?
Actually these are not types of Nauli but steps when one follows it. Dakshina, Madhya, Vama and finally Purna Nauli…. Its doesn’t makes any sense by calling them different types but…steps to reach Purna Nauli.
I hope the dobut is clear when other Authors mention it as types rather than steps of Nauli kriya.
Types of
Namaste!
Shloka 55,
Here in Trataka, same logic applies as some authors did for Nauli Kriya.
When you look at practical process Trataka, then you will get 3 parts of it which are integral to Trataka and doing only one part will not accomplish the Trataka Kriya.
So, these Bahya, Anatar trataka are the parts of Trataka not the types of Trataka Kriya.
हरीॐ
घेरंड संहिता (योग पब्लिकेशन ट्रस्ट मुंगेर द्वारा प्रकाशित) के पृष्ठ क्रमांक १०७ पर स्पष्टतः बताया गया है की त्राटक के 3 प्रकार हैं. कृपया इसे आलोकित करें.
धन्यवाद्