कपालभाति क्रिया के प्रकार
भालभाति का व्यवहारिक नाम कपालभाति है । सभी व्यक्ति इसे कपालभाति के नाम से ही जानते हैं । लेकिन महर्षि घेरण्ड ने इसे भालभाति कहकर संबोधित किया है । भाल का अर्थ है ‘ललाट या चेहरा’ । और कपाल का अर्थ भी ललाट या चेहरा ही होता है । इसलिए भालभाति को कपालभाति कहा जाता है ।
कपालभाति के विषय में प्रचलित धारणाएं :-
कपालभाति के विषय में कुछ लोगों को सन्देह है कि यह षट्कर्म की क्रिया की बजाय एक प्राणायाम है । ऐसा मानने वालों के लिए यह समझ लेना बहुत ही आवश्यक है कि हठयोग के ग्रन्थों के अनुसार कपालभाति प्राणायाम नहीं बल्कि एक क्रिया है । यदि यह प्राणायाम होता तो महर्षि घेरण्ड इसका वर्णन कुम्भक ( प्राणायाम ) के अध्याय में करते जबकि उन्होंने इसका वर्णन षट्कर्म के रूप में किया है ।
दूसरा इसके जो तीन भेद किए गए हैं, उनमें से पहले अर्थात वातक्रम कपालभाति की जो विधि बताई गई है । कुछ उस विधि के कारण इसे प्राणायाम मानते हैं । क्योंकि वातक्रम कपालभाति में अनुलोम- विलोम की तरह श्वास को लेने व छोड़ने की विधि बताई गई है । लेकिन उसका वर्णन पहले इसलिए किया गया है ताकि व्युत्क्रम और शीतक्रम की क्रिया ठीक ढंग से हो पाए । पानी को नासिका से मुँह द्वारा और मुँह से नासिका द्वारा निकालने से पहले उसकी सफाई होना जरूरी है । जो कि वातक्रम कपालभाति द्वारा होती है ।
कपालभाति को प्राणायाम समझने के पीछे सबसे प्रमुख कारण योग गुरु स्वामी रामदेव द्वारा करवाया जाने वाला कपालभाति प्राणायाम है । जब स्वामी रामदेव प्राणायाम का क्रम शुरू करते हैं, तो वह सबसे पहले कपालभाति प्राणायाम करवाते हैं । जिसकी विधि षट्कर्म वाले कपालभाति से बिलकुल अलग है । लेकिन बहुत सारे व्यक्ति षट्कर्मों में वर्णित कपालभाति को स्वामी रामदेव द्वारा बताया गया प्राणायाम समझने की भूल करते हैं । जबकि उस कपालभाति व षट्कर्म के कपालभाति में बहुत ज्यादा अन्तर है ।
ऊपर वर्णित तर्कों से हमने कपालभाति के सम्बंध में विभिन्न मतों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है । जिससे विद्यार्थियों को किसी प्रकार की असुविधा न हो ।
कपालभाति परिचय :- कपालभाति षट्कर्म की छटी व अन्तिम क्रिया है । जिसके तीन प्रकार है –
वातक्रमेण व्युत्क्रमेण शीत्क्रमेण विशेषतः ।
भालभातिं त्रिधा कुर्यात्कफदोषं निवारयेत् ।। 56 ।।
भावार्थ :- भालभाति ( कपालभाति ) क्रिया के वातक्रम, व्युत्क्रम व शीतक्रम नामक तीन विशेष प्रकार हैं । जिनका अभ्यास करने से साधक के सभी कफ रोगों का निवारण ( समाप्त ) हो जाता है ।
विशेष :- घेरण्ड संहिता में कपालभाति क्रिया के तीन प्रकारों का वर्णन किया गया है । जिनका क्रम इस प्रकार है :- 1. वातक्रम कपालभाति, 2. व्युत्क्रम कपालभाति, 3. शीतक्रम कपालभाति ।
वातक्रम कपालभाति
इडया पूरयेद्वायुं रेचयेत्पिङ्गलया पुनः ।
पिङ्गलया पूरयित्वा पुनश्चन्द्रेण रेचयेत् ।। 57 ।।
भावार्थ :- इड़ा नाड़ी ( बायीं नासिका ) से श्वास को अन्दर भरें और पिंगला नाड़ी ( दायीं नासिका ) से श्वास को बाहर निकाल दें । फिर पिंगला नाड़ी ( दायीं नासिका ) से श्वास को अन्दर भरकर इड़ा नाड़ी ( बायीं नासिका ) से श्वास को बाहर निकाल देना ही वातक्रम कपालभाति होता है ।
विशेष :- इडा नाड़ी का अर्थ बायीं नासिका व सूर्य नाड़ी का अर्थ दायीं नासिका होता है ।
वातक्रम कपालभाति के लाभ
पूरकं रेचकं कृत्वा वेगेन न तु चालयेत् ।
एवमभ्यास योगेन कफदोषं निवारयेत् ।। 58 ।।
भावार्थ :- इस पूरक ( श्वास को अन्दर लेना ) व रेचक ( श्वास को बाहर छोड़ना ) क्रिया को कभी भी तेज गति के साथ नहीं करना चाहिए । इस प्रकार सहज रूप से करने पर यह सभी कफ दोषों का निवारण करता है ।
व्युत्क्रम कपालभाति विधि व लाभ
नासाभ्यां जलमाकृष्य पुनर्वक्त्रेण रेचयेत् ।
पायं पायं व्युत्क्रमेण श्लेषमादोषं निवारयेत् ।। 59 ।।
भावार्थ :- नासिका के दोनों छिद्रों से पानी को पीकर मुहँ द्वारा बाहर निकाल दें और फिर उल्टे क्रम में ही मुहँ द्वारा पानी पीकर दोनों नासिका छिद्रों से पानी को बाहर निकाल दें । इस व्युत्क्रम कपालभाति द्वारा साधक के सभी कफ जनित रोगों का नाश होता है ।
विशेष :- व्युत्क्रम का अर्थ होता है उल्टा कर्म । इसके नाम से ही विद्यार्थी इसकी विधि को याद रख सकते हैं । हम नासिका द्वारा वायु और मुहँ द्वारा पानी पीते हैं । लेकिन व्युत्क्रम होने के कारण इसमें नासिका द्वारा पानी पीकर मुहँ से निकालना और फिर पुनः मुहँ द्वारा पानी पीकर नासिका द्वारा बाहर निकालना होता है । तभी इसका नाम व्युत्क्रम कपालभाति है ।
शीतक्रम कपालभाति विधि व लाभ
शीत्कृत्य पीत्वा वक्त्रेण नासानालैर्विरेचयेत् ।
एवमभ्यासयोगेन कामदेवसमो भवेत् ।। 60 ।।
भावार्थ :- शीत्कार की आवाज करते हुए मुहँ द्वारा पानी पीकर नासिका के दोनों छिद्रों से बाहर निकाल दें । यह प्रक्रिया शीतक्रम कपालभाति कहलाती है । इसका अभ्यास करने से योगी का शरीर कामदेव की भाँति अत्यंत सुन्दर हो जाता है ।
न जायते वार्द्धकं च ज्वरा नैव प्रजायते ।
भवेत्स्वच्छन्ददेहश्च कफदोषं निवारयेत् ।। 61 ।।
भावार्थ :- शीतक्रम के अभ्यास से व्यक्ति में कभी भी बुढ़ापा नहीं आता है और न उसके शरीर में कभी जीर्णता ( दुर्बलता ) आती है । इसके अलावा साधक का सम्पूर्ण शरीर स्वच्छ ( दोष रहित ) रहता है और उसके सभी कफ दोषों का भी निवारण हो जाता है ।
Namaste!
Glad to see your updates.
Shloka 59, correction in translation. Here only taking water from both nostril is “Vyutkrama Kapalbhati” reverse way of performance is Shitkrama.
As per your translation, what’s difference between Shitkrama and Vyutkrama? Shitkrama is repeating the same procedure as half part in Vyutkrama. Please refer to Gherandsamhita Kaivalyadhama edition.
Thanks!
ॐ गुरुदेव!
आपको हृदय से आभार।
Thanks and happy lohri sir
धन्यवाद।
बिल्कुल ठीक कहा कि व्युतक्रम और शीतक्रम में यही अंतर है कि व्युतक्रम में नाक से पानी पी कर मुंह से निकाला जाता है और शीतक्रम में मुंह से पी कर नाक से निकाला जाता है।
धन्यवाद्
Aum ji
Sadar naman pranaam vandan
Thnx alot for the knowledge
Koti koti dandvat pranaam
???? बहुत-बहुत धन्यवाद गुरुदेव ????????????????????????