हृदय धौति के प्रकार

 

हृद्धौतिं त्रिविधां कुर्याद्दण्डवमनवाससा ।। 36 ।।

 

भावार्थ :- हृदय धौति को तीन प्रकार से किया जाता है :- 1. दण्ड ( दण्डधौति ), 2. वमन ( वमन धौति ), 3. वास ( वस्त्र धौति ) ।

 

 

दण्ड धौति विधि

 

रम्भादण्डं हरिद्दन्डं वेत्रदण्डं तथैव च ।

हृन्मध्ये चालयित्वा तु पुनः प्रत्याहरेच्छनै: ।। 37 ।।

 

भावार्थ :- केले के पत्तों के बीच के कोमल ( पाइपनुमा ) भाग से, हल्दी के पत्तों के बीच के कोमल ( पाइपनुमा ) भाग से या फिर वेंत के पत्तों के बीच के कोमल ( पाइपनुमा ) भाग को हृदय प्रदेश के बीच तक ( छाती के दोनों हिस्सो के बीचोंबीच ) ले जाकर पुनः उसे धीरे से बाहर निकालना दण्डधौति कहलाता है ।

 

 

विशेष :- दण्डधौति में बताई गई विधि को अच्छी प्रकार से समझने के लिए विद्यार्थी चित्र की सहायता ले सकते हैं । आजकल दण्डधौति के स्थान पर रबड़ की पाइप का प्रयोग किया जाता है । जिसे स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता ।

 

 

दण्ड धौति लाभ

 

कफपित्तं तथा क्लेदं रेचये दूर्ध्ववर्त्मना ।

दण्डधौतिविधानेन हृद्रोगं नाशयेद् ध्रुवम् ।। 38 ।।

 

भावार्थ :- दण्डधौति के अभ्यास से साधक के अन्दर कफ, पित्त व क्लेद ( दूषित चिपचिपा पदार्थ ) आदि की बढ़ी हुई मात्रा को शरीर के ऊपरी मार्ग ( मुहँ द्वारा ) बाहर निकाल दिया जाता है । जिससे साधक के हृदय से सम्बंधित सभी रोग निश्चित रूप से समाप्त हो जाते हैं ।

 

 

विशेष :- दण्डधौति से साधक के शरीर में कफ, पित्त व क्लेद ( दूषित चिपचिपा पदार्थ ) की अधिकता समाप्त हो जाती है । जिससे शरीर में इन सभी से सम्बंधित होने वाले रोगों की सम्भावना भी समाप्त हो जाती है ।

 

 

वमन धौति विधि व लाभ

 

भोजनान्ते पिबेद्वारि चाकण्ठ पूरितं सुधी: ।

उर्ध्वां द्रुष्टिं क्षणं कृत्वा तज्जलं वमयेत् पुनः ।। 39 ।।

नित्यामभ्यासयोगेन कफपित्तं निवारयेत् ।। 40 ।।

 

भावार्थ :- बुद्धिमान साधक द्वारा भोजन करने के बाद ( भोजन करने के लगभग

चार घण्टे बाद ) पानी को इतनी मात्रा में पीना चाहिए कि पानी गले तक भर जाए । इसके बाद कुछ पल तक साधक द्वारा ऊपर की ओर देखते हुए पुनः उस सारे पानी को बाहर निकाल देना चाहिए । यह वमन धौति कहलाती है । इस प्रकार वमन धौति का नियमित रूप से अभ्यास करने से साधक के कफ व पित्त से सम्बंधित सभी विकार ( रोग ) समाप्त हो जाते हैं ।

 

 

विशेष :- इस श्लोक में वमन धौति की विधि में लिखा है कि साधक को भोजन के बाद पानी पीकर उसे निकाल देना चाहिए । इसके विषय में सभी योग आचार्यों के अलग- अलग मत हैं । एक मत के अनुसार तो साधक को भोजन करने के तुरन्त बाद पानी पीकर इस क्रिया को करना चाहिए । यह क्रिया इसलिए न्यायसंगत नहीं लगती है क्योंकि ऐसा करने से तो सारा भोजन बाहर निकल जाएगा । साथ ही इस विधि का अभ्यास नियमित रूप से करने की बात कही गई है । जिससे इस विधि पर घोर शंका होती है । प्रतिदिन यदि ऐसा किया जाएगा तो शरीर अत्यंय कमजोर पड़ जाएगा । जब तक शरीर को पोषण के रूप में आहार प्राप्त नहीं होगा तो निश्चित रूप से उसका ( शरीर )  नाश हो जाएगा । इसलिए यहाँ पर ऋषि घेरण्ड इस प्रकार का कथन नहीं कह रहे हैं । इससे सम्बंधित एक अन्य क्रिया भी की जाती है जिसे आधुनिक योग आचार्यों ने व्याघ्र क्रिया का नाम दिया है । व्याघ्र क्रिया के प्रयोग के पीछे एक विशेष प्रयोजन होता है । कई बार हम गलती से गरिष्ठ, दूषित या ज्यादा मात्रा में भोजन ग्रहण कर लेते हैं । जिससे शरीर में नुकसान होने का खतरा बढ़ जाता है । उस खतरे से बचने के लिए व्याघ्र क्रिया का अभ्यास किया जाता है । इसे व्याघ्र क्रिया का नाम इसलिए दिया गया है क्योंकि शेर भी इसी प्रकार करता है । जब कई बार शेर अत्यधिक मात्रा में किसी प्राणी के मांस का सेवन कर लेता है तो वह उसको उल्टी करके बाहर निकाल देता है । ठीक उसी तर्ज पर इसे व्याघ्र क्रिया का नाम दिया गया है ।

 

अब इसके बाद कुछ योग आचार्यों का मानना है कि भोजन के बाद का अर्थ है भोजन करने के कम से कम चार घण्टे बाद इस क्रिया को करना चाहिए । ऐसा इसलिए कहा गया है कि भोजन को पचने में कम से कम तीन से चार घण्टे का समय लगता है । इसके बाद ( 3- 4 घण्टे ) बाद भी भोजन का जो अंश ( भाग ) नहीं पचा है । वह शरीर के अन्दर अपच को बढ़ाकर शरीर में अनेक प्रकार के विष उत्पन्न करता है । इसलिए उस बिना पचे हुए भोजन के अंश को वमन धौति के द्वारा बाहर निकाला जाता है । यह विधि पूरी तरह से तर्कपूर्ण व न्यायसंगत लगती है । इसलिए सभी साधक अपने विवेक से भी इसका विश्लेषण करें ।

 

 

वासधौति / वस्त्र धौति विधि

 

चतुरङ्गुलविस्तारं सूक्ष्मवस्त्रं शनैर्ग्रसेत् ।

पुनः प्रत्याहरेदेतत्प्रोच्यते धौतिकर्मकम् ।। 41 ।।

 

भावार्थ :- चार अँगुल चौड़ा बारीक कपड़ा लेकर उसे धीरे- धीरे गले से नीचे निगलते हुए अन्दर ले जाएं । उसके बाद पुनः उस कपड़े को धीरे- धीरे ही बाहर निकालें । इस क्रिया को वस्त्र धौति कहते हैं ।

 

 

विशेष :-  इसके लिए एक हल्के बारीक सूती वस्त्र का प्रयोग किया जाता है । जिसकी चौड़ाई चार अँगुलियों के बराबर ( लगभग तीन इंच ) होती है और लम्बाई लगभग बाईस फीट होती है ( हठ प्रदीपिका के अनुसार ) । इसके लिए सर्वप्रथम साधक कागासन में बैठें और उसके बाद उस कपड़े की गोल पट्टी बनाकर उसे गुनगुने पानी में भिगो ले । फिर धीरे- धीरे उसे मुँह द्वारा अन्दर निगलना होता है । इसमें साधक को सावधानी रखनी चाहिए कि सूती वस्त्र को दाँतों से बचा कर रखे । वस्त्र धौति को ज्यादा समय तक पेट के अन्दर नहीं रखना चाहिए । पाँच मिनट के अन्दर ही उसे बाहर निकालना शुरू कर देना चाहिए अन्यथा शरीर के अन्दर धौति के पचने की क्रिया शुरू हो सकती है । जिससे बहुत हानि हो सकती है । अतः साधक इसका अभ्यास सदा योग्य गुरु की देखरेख में ही करे ।

 

 

वासधौति / वस्त्र धौति लाभ

 

गुल्मज्वरप्लीहकुष्ठं कफपित्तं विनश्यति ।

आरोग्यं बलपुष्टिश्च भवेत्तस्य दिने दिने ।। 42 ।।

 

भावार्थ :- वस्त्र धौति के अभ्यास से शरीर के सभी वायु विकार ( गैस्टिक ), ज्वर ( बुखार ), प्लीहा ( स्प्लीन ), चर्म व कुष्ठ रोग ( त्वचा रोग ) व कफ और पित्त के असन्तुलन से होने वाले सभी रोगों का नाश हो जाता है । जिससे शरीर में आरोग्यता, मजबूती और शक्ति ( ताकत ) का प्रभाव दिन प्रतिदिन बढ़ता रहता है ।

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  1. ?प्रणाम आचार्य जी! हृद्धौति का बहुत ही सही विश्लेषण प्रस्तुत करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद? ??

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