अथ प्रथमोपदेश: ( पहला अध्याय )

 

अथ षट्कर्म साधना प्रकरणम्

( अब षट्कर्म योग साधना का वर्णन किया जाता है )

 

घेरण्ड संहिता के इस पहले अध्याय में केवल षट्कर्मों का ही वर्णन किया गया है । महर्षि घेरण्ड ने षट्कर्म को योग के पहले अंग के रूप में माना है । इनका मानना है कि साधक को पहले शरीर की शुद्धि करनी चाहिए और उसके बाद अन्य योग साधना । अतः प्रस्तुत है घेरण्ड संहिता का प्रथम उपदेश ( अध्याय ) ।

 

घटस्थयोगकथनम्

 

 एकदा चन्डकापालिर्गत्वा घेरण्डकुट्टिरम् ।

प्रणम्य विनयाद् भक्त्या घरेण्डं परिपृच्छति ।। 1 ।।

 

भावार्थ :- एक दिन चन्डकापालि नाम का एक राजा योगी महर्षि घेरण्ड की कुटिया में जाते हैं और महर्षि घेरण्ड को भक्तिपूर्ण भाव से प्रणाम करते हुए उनसे पूछते हैं ।

 

विशेष :- घेरण्ड संहिता नामक इस पूरे ग्रन्थ में महर्षि घेरण्ड व राजा चन्डकपालि के बीच में होने वाले संवाद का वर्णन मिलता है । इस ग्रन्थ के विषय में बहुत बार परीक्षा में पूछा भी जाता है कि घेरण्ड संहिता ग्रन्थ में किन दो व्यक्तियों के बीच में संवाद हुआ है ? जिसका उत्तर हमें इसी पहले श्लोक में ही मिलता है ( राजा चन्डकपालि व महर्षि घेरण्ड के बीच ) । दूसरा इस ग्रन्थ को संवादात्मक ग्रन्थ भी कहा जाता है । संवादात्मक ग्रन्थ का अर्थ होता है किन्ही दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच में होने वाली बातचीत । इस पूरे ग्रन्थ में राजा चन्डकपालि जिज्ञासु व महर्षि घेरण्ड को योग विद्या का ज्ञान देने वाले ऋषि के रूप में दर्शाया गया है ।

 

 

घटस्थ योग कथन

 

घटस्थयोगं योगेश तत्त्वज्ञानस्य कारणम् ।

इदानीं श्रोतुमिच्छामि योगीश्वर वद प्रभो ।। 2 ।।

 

भावार्थ :- हे योगीश्वर ! ( योग के स्वामी ) इस शरीर के द्वारा की जाने वाली योग साधना जिससे तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है । मैं उस योग साधना को आपसे सुनना चाहता हूँ । हे योगीश्वर ! आप मुझे उस योग विद्या का उपदेश देने की कृपा करें ।

 

 

साधु साधु महाबाहो यन्मान्त्वं परिपृच्छसि ।

कथयामि हि ते वत्स सावधानाऽवधारय ।। 3 ।।

 

भावार्थ :- हे महान बल वाले महावीर ! तुम्हे बहुत बहुत साधुवाद है जो तुमने मुझसे इस विषय के बारे में पूछ रहे हो । अतः हे वत्स ( पुत्र ) अब मैं उस योगविद्या का उपदेश करूँगा । तुम पूरी तरह से एकाग्रचित्त होकर उसे धारण करना अथवा सुनना ।

 

 

नास्ति मायासम: पाशो नास्ति योगात्परं बलम् ।

नास्ति ज्ञानात्परो बन्धुर्नाहङ्कारात्परो रिपु: ।। 4 ।।

 

भावार्थ :- माया ( धन- वैभव, पत्नी- पुत्र आदि ) से बड़ा कोई भी दुःख नहीं है, योग से बड़ा कोई भी बल ( ताकत ) नहीं है, ज्ञान से बड़ा कोई भी मित्र नहीं है और अहंकार से बड़ा कोई भी दुश्मन नहीं है ।

 

विशेष :- इस श्लोक में माया को सबसे बड़ा दुःख, योग को सबसे बड़ा बल, ज्ञान को सबसे बड़ा मित्र ( सहायक ) व अहंकार को सबसे बड़ा दुश्मन बताया है ।

 

 

अभ्यासात्कादिवर्णानि यथा शास्त्राणि बोधयेत् ।

तथा योगं समासाद्य तत्त्वज्ञानञ्च लभ्यते ।। 5 ।।

 

भावार्थ :- जिस प्रकार ‘क’ आदि वर्णमाला ( अक्षरों ) को जानने से हमें शास्त्रों का ज्ञान हो जाता है । ठीक उसी प्रकार योग में सिद्धि अथवा सफलता प्राप्त करने से साधक को तत्त्वज्ञान अर्थात् यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है ।

 

 

सुकृतैर्दुष्कृतै: कार्यैर्जायते प्राणिनां घट: ।

घटादुत्पद्यते कर्म घटियन्त्रं यथा भ्रमेत् ।। 6 ।।

 

भावार्थ :- मनुष्य का शरीर अच्छे व बुरे कर्मों का परिणाम है अर्थात् इस मानव शरीर की उत्पत्ति अच्छे व बुरे कर्मों से ही होती है । जिस प्रकार घटियन्त्र ( पुराने समय में बैलों के सहारे जमीन से पानी निकालने वाला यन्त्र जिसे रहट कहा जाता था ) ऊपर से नीचे की ओर घूमता रहता है । उसी प्रकार हमारा शरीर कर्म करता रहता है और उन्हीं कर्मों के कारण शरीर की उत्पत्ति होती रहती है । यह एक प्रकार का जीवन चक्र है जो रहट की तरह लगातार घूमता रहता है ।

 

 

ऊर्ध्वाधो भ्रमते यद्वद् घटियन्त्रं गवां वशात् ।

तद्वत्कर्मवशाज्जीवो भ्रमते जन्ममृत्युभि: ।। 7 ।।

 

भावार्थ :- जिस तरह घटियन्त्र के लगातार घूमने के कारण उसके पात्र ( जिनमें पानी आता है ) ऊपर से नीचे की ओर घूमते रहते हैं । ठीक उसी तरह मनुष्य भी अपने कर्मों ( अच्छे व बुरे अथवा कृष्ण व शुक्ल कर्म ) के कारण जन्म व मृत्यु के चक्कर लगाता रहता है ।

 

विशेष :- योग शास्त्रों में चार प्रकार के कर्म बताए गए हैं । जिनमें कृष्ण कर्म ( बुरे कर्म ), शुक्ल कर्म ( अच्छे कर्म ), कृष्णाशुक्ल कर्म ( अच्छे व बुरे अर्थात् मिश्रित कर्म ) व अशुक्ल- अकृष्ण कर्म ( अच्छाई व बुराई से रहित कर्म ) होते हैं । इनमें से पहले वाले तीन कर्म ही जन्म व मृत्यु का कारण होते हैं अर्थात् जब तक मनुष्य ऊपर वर्णित तीन प्रकार के कर्म करता रहता है तब तक वह जन्म- मरण के चक्कर में लगा रहता है । इनसे विपरीत चौथे प्रकार के कर्म ( अशुक्ल- अकृष्ण ) ही योगी के कर्म होते हैं । जो जन्म- मरण के बन्धन को तोड़कर मोक्ष प्रदान करवाते हैं । इसीलिए इस श्लोक में अच्छे व बुरे कर्मों को जन्म- मरण का कारण कहा गया है ।

Related Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked

  1. ॐ गुरुदेव*
    घेरंड संहिता का ज्ञान
    उद्घाटित करने हेतु आपका
    हृदय से आभार व्यक्त करता हूं।

{"email":"Email address invalid","url":"Website address invalid","required":"Required field missing"}