षट्कर्म वर्णन

 

धौतिर्वस्तिस्तथा नेतिर्लौलिकी त्राटकं तथा ।

कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि समाचरेत् ।। 12 ।।

 

भावार्थ :- योग साधक को धौति, बस्ति, नेति, लौलिकी ( नौलि ), त्राटक व कपालभाति नामक इन छ: प्रकार की शुद्धि क्रियाओं का अभ्यास करना चाहिए ।

 

विशेष:- महर्षि घेरण्ड ने षट्कर्मों को योग के पहले अंग के रूप में मान्यता दी है । उनका कहना है कि योग साधक को सबसे पहले षट्कर्मों द्वारा अपने शरीर का शुद्धिकरण करना चाहिए । इसके बाद ही साधक अन्य प्रकार की योग साधना करने के योग्य होता है । षट्कर्मों को मुख्य रूप से प्रचारित करने का श्रेय भी घेरण्ड ऋषि को ही जाता है । इन्होंने छ: षट्कर्मों के भी अलग- अलग प्रकारों का वर्णन करके इसको घेरण्ड संहिता के एक पूरे अध्याय का रूप देकर इनकी उपयोगिता को दर्शाया है ।

 

 

धौति के प्रकार

 

अन्तर्धौतिर्दन्तधौतिर्हृद्धौतिर्मूलशोधनम् ।

धौतिं चतुर्विधां कृत्वा घटं कुर्वन्ति निर्मलम् ।। 13 ।।

 

भावार्थ :- इस श्लोक में धौति के चार प्रकार बताते हुए कहा है कि अन्तर्धौति, दन्तधौति, हृदयधौति व मूलशोधन यह धौति के चार प्रकार हैं । साधक को इनका अभ्यास करके अपने शरीर की शुद्धि करनी चाहिए ।

 

 

विशेष :- इस श्लोक में षट्कर्म के पहले अंग अर्थात् धौति के चार प्रकारों का वर्णन किया गया है । धौति मुख्य रूप से चार प्रकार की होती है और यदि धौति के इन चार प्रकारों के भी अलग- अलग प्रकारों या भेदों की बात करें तो इनकी कुल संख्या तेरह ( 13 ) हो जाती है । परीक्षा की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जानकारी है । जिसे ऊपर दिये गए डायग्राम द्वारा आसानी से समझा जा सकता है ।

 

 

अन्तर्धौति के प्रकार

 

वातसारं वारिसारं वह्निसारं बहिष्कृतम् ।

घटस्य निर्मलार्थाय अन्तधौतिश्चतुर्विधा ।। 14 ।।

 

भावार्थ :- शरीर को शुद्ध करने के लिए साधक को अन्तर्धौति की निम्न चार प्रकार अथवा विधियों ( वातसार, वारिसार, वह्निसार ( अग्निसार ) और बहिष्कृत ) का अभ्यास करना चाहिए ।

 

 

विशेष :- धौति के चार प्रकारों में सबसे पहले प्रकार अर्थात् अन्तर्धौति के भी चार भेद बताये गये हैं । इनके क्रम व संख्या को परीक्षा की दृष्टि से बहुत उपयोगी माना जाता है । अतः विद्यार्थी इनको अच्छी प्रकार से याद करें । आगे के श्लोकों में इन सभी की विधि व इनसे मिलने वाले लाभ बताये जायेंगे ।

 

 

वातसार धौति विधि

 

काकचञ्चुवदास्येन पिबेद् वायुं शनै:शनै: ।

चालयेदुदरं पश्चाद्वर्त्मना रेचयेच्छनै: ।। 15 ।।

 

भावार्थ :- साधक को अपने मुहँ को कौवे की चोंच की तरह बनाकर उससे धीरे- धीरे से प्राणवायु को पीना चाहिए अर्थात् प्राणवायु को शरीर के अन्दर ग्रहण करना चाहिए । फिर अपने पेट को चलाते हुए ( आगे- पीछे या दायें से बायीं ओर घुमाते हुए ) उस वायु को पीछे अर्थात् गुदा मार्ग से धीरे- धीरे बाहर निकालना चाहिए ।

 

 

विशेष :- वातसार को याद रखने के लिए विद्यार्थी वातसार शब्द को पहले दो अलग- अलग भागों वात और सार में बाट ले । वात का अर्थ है वायु और सार का अर्थ है उसका निचोड़ । अब इसे आसानी से याद किया जा सकता है कि वायु को पीकर उसको निचोड़ देना चाहिए । निचोड़ने का अर्थ होता है उसके उपयोगी तत्त्व को निकाल लेना । जब हम किसी पदार्थ के आवश्यक तत्त्व को निकाल लेते हैं तो उसके बाद उस पदार्थ का क्या करते हैं ? निश्चित रूप से हम उसे अवशिष्ट पदार्थ की तरह फेंक देते हैं । इसे एक उदाहरण से समझते हैं । जैसे एक नींबू के रस को निचोड़ने के बाद जिस प्रकार उसके छिलके को हम फेंक देते हैं । ठीक उसी प्रकार जब हमने वायु को पेट में चलाकर उसके सार को ग्रहण कर लेते हैं तो उसे भी हम निश्चित रूप से बाहर ही फेंकेते हैं । और जिस वायु का शरीर के भीतर प्रयोग कर लिया गया हो तो उसका निष्कासन तो नीचे अर्थात् गुदा मार्ग से ही किया जाएगा । ऐसे ही हम भोजन को ग्रहण करके उसके रस को पचाकर बाकी बचे हुए अवशिष्ट को गुदा मार्ग द्वारा ही बाहर निकाल देते हैं । इस उदाहरण द्वारा आप इसकी विधि को आसानी से याद रख सकते हैं ।

 

 

वातसार धौति लाभ

 

वातसारं परं गोप्यं देहनिर्मलकारणम् ।

नाशयेत्सकलान् रोगान्  वह्निमुद्दीपयेतथा ।। 16 ।।

 

भावार्थ :- वातसार अत्यन्त गुप्त रखने वाली यौगिक क्रिया है । इसका अभ्यास करने से साधक का शरीर स्वच्छ ( मल रहित ) हो जाता है । यह शरीर के सभी रोगों को नष्ट करती है और जठराग्नि ( पाचन क्रिया ) को तीव्र अर्थात् मजबूत करती है ।

 

 

वारिसार धौति विधि

 

आकण्ठं पूरयेद्वारि वक्त्रेण च पिबेच्छनै: ।

चालयेदुदरेणैव चोदराद्रेचयेदध: ।। 17 ।।

 

भावार्थ :- जल ( पानी ) को मुहँ द्वारा धीरे- धीरे इतनी मात्रा में पीना चाहिए जिससे कि वह गले तक आ जाये अर्थात् इतना पानी पीना चाहिए कि वह गले तक आ जाये । इसके बाद अपने पेट को चलाते हुए ( आगे-पीछे अथवा दायें से बायें ) उस पानी को अधोमार्ग ( गुदा द्वार ) से बाहर निकाल दें ।

 

 

विशेष :- वारिसार की विधि और वातसार की विधि दोनों ही पूरी तरह से मिलती जुलती ही है । इसको याद रखने के लिए विद्यार्थी को केवल इसके पहले शब्द को समझने की आवश्यकता है । वातसार और वारिसार शब्दों में पीछे के दोनों शब्द ( सार ) समान हैं । वातसार में वात का अर्थ होता है वायु और वारिसार में वारि शब्द का अर्थ जल अथवा पानी होता है । बाकी की विधि बिलकुल समान है । वातसार में यह क्रिया वायु के द्वारा पूरी होती है और वारिसार में यह क्रिया पानी के द्वारा पूरी की जाती है । बाकी सब समान विधि समान होती है । अतः सभी छात्रों को केवल वात ( वायु ) और वारि ( जल ) शब्दों को ही याद रखना है ।

 

 

वारिसार धौति लाभ

 

 

वारिसारं परं गोप्यं देहनिर्मलकारणम् ।

साधयेत्तं प्रयत्नेन देवदेहं प्रपद्यते ।। 18 ।।

 

भावार्थ :- वारिसार क्रिया भी वातसार की तरह ही अत्यन्य गोपनीय यौगिक क्रियाओं में से एक है । इसका अभ्यास करने से साधक का शरीर पूरी तरह से स्वच्छ ( विजातीय द्रव्यों से रहित ) हो जाता है । पूरे मनोभाव से इसका अभ्यास करने से साधक का शरीर देवताओं के समान दिव्य रूप ( अत्यन्य मनमोहक ) वाला हो जाता है ।

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  1. सर आपने जो किताबों कि लिस्ट दि है ,क्या वें किताबे कहा उपलब्ध होगी ,कृपया मार्गदर्शन किजियें. धन्यवाद.

  2. ॐ गुरुदेव!
    अति सुन्दर व्याख्या।

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