आठवां अध्याय ( अक्षर ब्रह्म योग )

अक्षरब्रह्म योग नामक आठवें अध्याय में कुल अठाइस ( 28 ) श्लोकों का वर्णन किया गया है ।

इस अध्याय की शुरुआत में ही अर्जुन श्रीकृष्ण से अनेक प्रश्न पूछता है । जिनमें वह कहता है कि ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है ? कर्म क्या है ? अधिभूत और अधिदैव क्या हैं ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि कभी भी नष्ट न होने वाला तत्त्व ही ब्रह्म है । जिसे अक्षर ब्रह्म भी कहते हैं ।

दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि व्यक्ति का जो मूल स्वभाव होता है उसे ही अध्यात्म कहते हैं । तीसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए बताया कि इस सृष्टि के व्यापार को ही कर्म कहा जाता है । चौथे प्रश्न के उत्तर में कहा गया कि जो पंच महाभूतों व प्राणियों से सम्बन्ध रखता है वह अधिभूत कहलाता है और अंतिम प्रश्न के उत्तर में बताया कि जो चेतन पुरूष है वही अधिदैव कहलाता है ।

इसके अतिरिक्त इस अध्याय में उस काल का भी वर्णन किया गया है जिसमें प्राण त्यागने पर साधक का इस पृथ्वी पर पुनः जन्म नहीं होता है अर्थात् वह आत्मा जो मुक्त हो जाती है । इसके अलावा उस काल का भी वर्णन किया है जिसमें देह त्यागने पर मनुष्य फिर से इसी लोक में जन्म लेता रहता है अर्थात् मुक्ति को प्राप्त नहीं होता है ।

पहले मुक्तात्मा का वर्णन करते हुए कहा है कि जो मनुष्य अग्नि, ज्योति, शुक्लपक्ष व उत्तरायण के समय पर अपनी देह त्यागते हैं । वह सभी ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् मुक्त हो जाते हैं । उनका पुनर्जन्म नहीं होता है । जबकि जो मनुष्य धुआँ, रात्रि, कृष्णपक्ष व दक्षिणायन के समय पर अपनी देह को त्यागते हैं । वह मनुष्य मुक्त नहीं हो पाते और फिर से इस पृथ्वी पर जन्म लेते रहते हैं ।

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