चौथा अध्याय ( ज्ञान – कर्म सन्यासयोग )
चौथे अध्याय में मुख्य रूप से कर्म व ज्ञान का उपदेश दिया गया है ।
इसमें कुल बयालीस ( 42 ) श्लोकों का वर्णन किया गया है । इस अध्याय के आरम्भ में ही श्रीकृष्ण योग की पुरातन परम्परा का परिचय देते हुए कहते हैं कि यह कर्मयोग का मार्ग कभी भी नष्ट नहीं हो सकता । यह तीनों लोकों में विद्यमान रहने वाला सनातन ज्ञान है । यह योगज्ञान सबसे पहले विवस्वान को दिया गया, विवस्वान ने अपने पुत्र मनु को, मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को दिया । इसके बाद अनेक राजऋषियों ने इस ज्ञान को प्राप्त किया । कुछ काल पहले यह ज्ञान लुप्तप्राय हो गया था जिसे मैं आज तुम्हे बताऊँगा । इस प्रकार ऊपर वर्णित वैदिक योग परम्परा के इतिहास को बताया गया है ।
जब अर्जुन पूछते हैं कि हे कृष्ण! तुम्हारा जन्म तो अभी हुआ है और विवस्वान का जन्म बहुत पहले हो चुका, तो यह कैसे सम्भव है कि उस समय भी यह ज्ञान तुमने ही दिया था ? इसके उत्तर में श्रीकृष्ण गीता के बहुत ही प्रचलित श्लोक ‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत’ का उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन ! जब – जब भी कभी धर्म की हानि होती है तब- तब मैं स्वयं प्रकट होकर उसकी रक्षा करता हूँ । इसलिए आज इस लुप्तप्राय हो चुकी इस योगविद्या को पुनर्जीवित करने के लिए मैं स्वयं आया हूँ ।
इस अध्याय में श्रीकृष्ण चार वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र ) का भी वर्णन करते हैं । प्राणायाम की विधि का वर्णन करते हुए कहा है कि प्राण का अपान व अपान का प्राण में हवन करना ही प्राणायाम होता है ।
इनके अतिरिक्त इस अध्याय में कर्म व अकर्म का स्वरूप, ज्ञान की महिमा, ज्ञान से मुक्ति प्राप्ति व पापनाश के उपायों का भी वर्णन किया गया है ।
Nice Dr Sahab.
ॐ गुरुदेव!
आपका बहुत बहुत आभार।
Prnam Aacharya ji… Uttam
thank you sir .really very nice sir