दूसरा अध्याय ( सांख्ययोग )

गीता के दूसरे अध्याय से श्रीकृष्ण अर्जुन के विषाद का उपचार करना आरम्भ करते हैं । श्रीकृष्ण द्वारा गीता का ज्ञान इसी अध्याय से शुरू होता है । इसमें श्रीकृष्ण सांख्य योग के आधार पर अर्जुन को युद्ध की अनिवार्यता के लिए अनेक तर्क देते हैं । ज्ञान की दृष्टि से यह दूसरा अध्याय अत्यंत महत्वपूर्ण है ।

इस अध्याय में कुल बहत्तर ( 72 ) श्लोकों का वर्णन मिलता है ।

इसमें शरीर को अनित्य व आत्मा को नित्य बताते हुए आत्मा की नश्वरता पर प्रकाश डाला गया है । आत्मा का स्वरूप बताने वाले सबसे प्रचलित श्लोक ‘नैनं छिदन्ति शस्त्राणि’ का वर्णन करते हुए आत्मा को अविनाशी, नित्य, अजर, अमर, परिवर्तन रहित बताते हुए कहा है कि इस आत्मा को किसी भी शस्त्र द्वारा काटा नहीं जा सकता, अग्नि द्वारा जलाया नहीं जा सकता, पानी द्वारा गीला नहीं किया जा सकता व वायु द्वारा इसे सुखाया नहीं जा सकता । साथ ही स्वधर्म को मनुष्य के लिए सबसे कल्याणकारी बताया गया है ।

कर्म के सबसे प्रचलित श्लोक ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ ( मनुष्य का केवल कर्म करने में ही अधिकार होता है उसके फल की प्राप्ति में नहीं, इसलिए निष्काम भाव से कर्म करना चाहिए ) का वर्णन भी इसी अध्याय में किया गया है । जिसमें निष्काम कर्म की महत्ता को बताया गया है । आगे बुद्धि के दो भेद बताते हुए कहा गया है कि व्यवसायात्मिका अर्थात् स्थिर बुद्धि होती है । ठीक इसके विपरीत अनन्त ( अनेक ) प्रकार की बुद्धि को अस्थिर बुद्धि कहा है ।

ठीक इसके बाद योग की दो सबसे प्रचलित परिभाषाओं के रूप में प्रयोग किये जाने वाले श्लोकों ‘समत्वं योग उच्यते’ ( सफलता व असफलता दोनों ही अवस्थाओं में एक समान भाव रखना योग है ) व ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ ( कार्यों में कुशलता अर्थात् अपने कर्तव्य कर्म को पूरी ईमानदारी, श्रद्धा, दिलचस्पी, सावधानी व प्रयत्नपूर्वक करना ही योग है ) का वर्णन भी इसी अध्याय में किया गया है ।

इसके बाद श्रीकृष्ण द्वारा स्थितप्रज्ञ मुनि अथवा स्थिरबुद्धि मनुष्य के लक्षणों ( वासना, कामना, आसक्ति, तृष्णा, राग, भय व क्रोध से रहित व इन्द्रियों एवं मन का निग्रह करने वाला ) का वर्णन किया गया है साथ ही कहा गया है कि जब मनुष्य राग- द्वेष से रहित होकर अपनी इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में कर लेता है तब उसका चित्त प्रसन्न होता है । इसी चित्त की प्रसन्नता से मनुष्य की बुद्धि स्थिर होती है ।

अतः बुद्धि को स्थिर रखने के लिए चित्त प्रसादन ( मन की राग- द्वेष रहित अवस्था ) के उपायों को अत्यंत उपयोगी बताया गया है ।

Related Posts

March 5, 2020

महर्षि व्यासजी ( संकलन कर्ता )   व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्‍गुह्यमहं परम्‌ । योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्‌ ।। ...

Read More

March 5, 2020

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा । कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ।। 72 ।।     व्याख्या ...

Read More

March 5, 2020

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति । भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ।। 68 ।। ...

Read More
Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked

{"email":"Email address invalid","url":"Website address invalid","required":"Required field missing"}