पन्द्रहवां अध्याय ( पुरुषोत्तम योग )
इस अध्याय में कुल बीस ( 20 ) श्लोकों का वर्णन किया गया है ।
जिसमें परमपद के लक्षणों का, जीवन का स्वरूप, आत्मा के ज्ञान व पुरुषोत्तम ज्ञान के स्वरूप की चर्चा की गई है । पहले उस परमपद का वर्णन करते हुए कहा गया है कि सम्मान व ममता से रहित है, जिसने दोषों पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया है, जो सदा स्थिर रहता है और जो सभी द्वन्द्वों से रहित है । वह परमपद का स्थान होता है । जिसे सूर्य, चन्द्रमा, तारे व कोई भी तत्त्व प्रकाशित नहीं कर सकता है । इसके बाद पुरुषोत्तम के ज्ञान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि इस लोक व्यवहार व वेदों में मैं पुरुषोत्तम नाम से विख्यात हूँ । जो भी भक्त मेरे इस स्वरूप को जानकर मेरा भजन करता है । अन्त में वह मुझे प्राप्त कर लेता है ।
अन्त में श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि यह पुरुषोत्तम नामक उत्तम से उत्तम ज्ञान है । जिसके विषय में मैंने तुम्हें विस्तार से बताया है । जिसको जानने मात्र से मनुष्य पूर्णतया को प्राप्त हो जाता है ।
Thank you sir
Thankyou very much.. Pujy Guruvar we are very lucky to have a guide like you.. You have taught us Patanjali Yog Darshan, Hathpradipika, Gherand Samhita, and now completing Shrimadbhagvadgita..
सर आप ने गागर मे सागर भर दिया !??
Thank you sir
Dr sahab nice explain about puroshtum.
ॐ गुरुदेव!
अप्रतिम व्याख्या।