तेरहवां अध्याय ( क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग )
इस अध्याय में मुख्य रूप से क्षेत्र ( शरीर ) व क्षेत्रज्ञ ( आत्मा ) के स्वरूप का वर्णन कुल चौतीस ( 34 ) श्लोकों के माध्यम से किया गया है ।
सबसे पहले श्रीकृष्ण क्षेत्र व क्षेत्रज्ञ को समझाते हुए कहते हैं कि इस शरीर को क्षेत्र व आत्मा को क्षेत्रज्ञ कहा गया है । इसके बाद क्षेत्र की उत्पत्ति के कारकों का वर्णन करते हुए बताया गया है कि इस क्षेत्र अर्थात् शरीर की उत्पत्ति पञ्च महाभूतों ( आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी ), अहंकार, बुद्धि, प्रकृति, पाँच कर्मेन्द्रियों व पाँच ज्ञानेन्द्रियों, मन, पाँच तन्मात्राओं ( शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध ) व चेतना अर्थात् प्राण से निर्मित है ।
इस प्रकार यहाँ पर भी सांख्य दर्शन के ही पच्चीस तत्त्वों का वर्णन किया गया है । केवल पुरुष के स्थान पर चेतन अर्थात् प्राण शब्द का प्रयोग अलग से हुआ है । अन्यथा चौबीस तत्त्व सांख्य के अनुसार ही कहे गए हैं । इसके बाद ज्ञानयोग के तत्त्वों का वर्णन करते हुए कहा है कि मानहीनता, दम्भहीनता, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु की सेवा, पवित्रता, स्थिरता, आत्म संयम, वैराग्य, अहंकार विहीन स्वभाव, आसक्ति का अभाव, समभाव व एकान्त वास आदि सभी ज्ञान के साधन हैं । इसके अलावा सब अज्ञान से परिपूर्ण है ।
क्षेत्र ( शरीर ) व क्षेत्रज्ञ ( आत्मा ) के सम्बन्ध को बताते हुए कहा है कि यह शरीर कर्म करने का साधन है और आत्मा उस कार्य को करने वाला साध्य अर्थात् कार्य को करने वाला है । आगे इस अध्याय में पुरुष का स्वभाव, क्षेत्र व क्षेत्रज्ञ के ज्ञान का फल व जीवन की पूर्णता के सम्बन्ध में भी चर्चा की गई है ।
Thank you sir
Dr sahab nice explain about thirteen part.
ॐ गुरुदेव!
बहुत बहुत आभार आपका।
Prnam Aacharya ji.thank you Om