सत् = सत्य ( सर्वहितकारी )   सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते । प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ।। 26 ।।       व्याख्या :-  सत् शब्द का प्रयोग साधुभाव अर्थात् सबकी भलाई व सत्य के रूप में किया जाता है तथा सभी उत्तम अथवा श्रेष्ठ कार्यों के लिए भी सत् शब्द का प्रयोग

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Bhagwad Geeta Ch. 17 [26-28]

ॐ तत् सत् = ब्रह्म स्वरूप   ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः । ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ।। 23 ।। तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः । प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌ ।। 24 ।।       व्याख्या :-  ‘ॐ तत् सत्’ नामक तीन शब्दों द्वारा ब्रह्म को निर्देशित किया गया है अर्थात् ब्रह्म को इन तीन

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Bhagwad Geeta Ch. 17 [23-25]

सात्त्विक दान = योग्य व्यक्ति, समय व स्थान पर कर्तव्य भावना से   दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे । देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्‌ ।। 20 ।।     व्याख्या :-  जो दान उपयुक्त देश ( स्थान ), काल ( समय ) और पात्र ( योग्य व्यक्ति ) को बिना उपकार की भावना के

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Bhagwad Geeta Ch. 17 [20-22]

सात्त्विक तप = श्रद्धा व फलासक्ति रहित   श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः । अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ।। 17 ।।       व्याख्या :-  ऊपर वर्णित शारीरिक, वाचिक और मानसिक तपों को जब योगयुक्त पुरुषों द्वारा फल की इच्छा से रहित व परम श्रद्धा से युक्त होकर किया जाता है, तब वह सात्त्विक तप

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Bhagwad Geeta Ch. 17 [17-19]

कायिक ( शरीर से सम्बंधित ) तप   देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌ । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।। 14 ।।     व्याख्या :-  देवताओं, ब्राह्मणों, गुरुजनों और विद्वानों की पूजा, शुद्धता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा से युक्त होकर किए जाने वाले तप शारीरिक तप कहलाते हैं ।     वाचिक ( वाणी से सम्बंधित )

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Bhagwad Geeta Ch. 17 [14-16]

सात्त्विक यज्ञ   अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते । यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ।। 11 ।।     व्याख्या :-  जो यज्ञ फल की इच्छा से रहित शास्त्र विधि के अनुसार है, कर्तव्य भावना और एकाग्र मन के साथ किया गया है, वह सात्त्विक यज्ञ कहलाता है ।       विशेष :- फल की

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Bhagwad Geeta Ch. 17 [11-13]

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः । यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु ।। 7 ।।     व्याख्या :-  जिस प्रकार सभी मनुष्यों को अपनी अलग – अलग रुचि के अनुसार तीन प्रकार का आहार प्रिय होता है, उसी प्रकार यज्ञ, तप तथा दान भी तीन- तीन प्रकार के भेद वाले होते हैं । अब इनके

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Bhagwad Geeta Ch. 17 [7-10]