तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌ ।। 7 ।।

 

 

व्याख्या :-  इसलिए हे अर्जुन ! तुम सभी कालों में सदा मेरा ही स्मरण करते हुए युद्ध करो । इस प्रकार तुम अपने मन व बुद्धि को मुझमें अर्पित करके निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त करोगे, इसमें किसी प्रकार का कोई सन्देह नहीं है ।

 

 

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्‌ ।। 8 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे पार्थ ! अभ्यास के द्वारा जिसने अपने चित्त को अन्य सभी विषयों से हटाकर परमात्मा में लगा दिया है, वह उस दिव्य ज्योति स्वरूप परम पुरुष अर्थात् उस परमात्मा का चिन्तन करते हुए, उसी को प्राप्त हो जाता है ।

 

 

 

 कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌ ।। 9 ।।

प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्‌- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्‌ ।। 10 ।।

 

 

व्याख्या :-  जो साधक परमात्मा के सर्वज्ञ ( जो सभी जगह विद्यमान है ), अनादि ( जो सबसे पुराना है ), सबको अनुशासित करने वाले, सबसे सूक्ष्म, सबका पालन करने वाले, जो सूर्य की भाँति प्रकाश स्वरूप व अविद्या से दूर स्थित शुद्ध दिव्य स्वरूप का स्मरण अथवा चिन्तन करता है –

 

ऐसा चिन्तनशील प्राणी अन्तकाल में अपने मन को निश्चल करके, भक्ति व योगबल से युक्त होकर, अपने प्राण को दोनों भौहों के बीच में स्थिर करता है, तो वह प्राणी उस दिव्य स्वरूप परमपिता परमात्मा को ही प्राप्त हो जाता है ।

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