योगभ्रष्ट अथवा योगमार्ग से विचलित पुरुष की क्या दशा होती है ?

 

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ।। 41 ।।

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्‌ ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्‌ ।। 42 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  योगभ्रष्ट पुरुष पुण्य आत्माओं द्वारा भोगे जाने वाले स्वर्ग आदि उत्तम लोकों को अनेक वर्षों तक भोगने के बाद, शुद्ध आचरण करने वाले श्रीमान् पुरुषों अर्थात् धार्मिक व्यक्ति के घर जन्म लेता है ।

 

या फिर वह योगभ्रष्ट पुरुष स्वर्गादि लोकों के भोग न भोगकर ज्ञानवान् योगियों के कुल में जन्म लेता है । इस प्रकार ज्ञानवान् योगियों के कुल में जन्म लेना अत्यन्त दुर्लभ अथवा अप्राप्य होता है ।

 

 

 

विशेष :-  ऊपर वर्णित श्लोक परीक्षा की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । बहुत बार परीक्षा में पूछा जाता है कि योगभ्रष्ट पुरुष किसके घर में जन्म लेता है ? जिसका उत्तर है – स्वर्गादि लोकों को भोगने के बाद वह योगभ्रष्ट पुरुष या तो शुद्ध आचरण करने वाले श्रीमानों के घर में जन्म लेता है या फिर ज्ञानवान् योगियों के घर में ।

 

 

 

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्‌ ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ।। 43 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  हे कुरुनन्दन अर्जुन ! वहाँ ( श्रीमान् अथवा ज्ञानियों के घर में ) जन्म लेने से वह ( योगभ्रष्ट पुरुष ) पूर्वजन्म में की गई साधना को संस्कार के रूप में प्राप्त करता है अर्थात् जो साधना उसके द्वारा पहले जन्म में की गई थी, उसे उस साधना के संस्कार इस जन्म में बिना किसी प्रयास के अपने आप ही प्राप्त हो जाते हैं ।

 

 

 

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ।। 44 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  अपनी पूर्वजन्म की साधना के पराधीन ( नियंत्रण में ) होने के कारण वह योगभ्रष्ट पुरुष पूर्ण सिद्धि अथवा परमात्मा की ओर आकर्षित हो जाता है । योग का जिज्ञासु अर्थात् योग को जानने का प्रयास करने वाला व्यक्ति भी शब्दब्रह्मा ( ब्रह्मा द्वारा उपदेशित वेदादि आदि ग्रन्थों कहे गए सकाम कर्म ) के भी परे चला जाता है अर्थात् उनको न मानकर निष्काम कर्म की ओर अग्रसर हो जाता है ।

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  1. ॐ गुरुदेव!
    योगभ्रष्ट आत्माओं की स्थिति का अति सुंदर वर्णन किया है आपने।आपको हृदय से आभार।

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