सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ।। 31 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  इस प्रकार एकात्म भाव में स्थित हुआ पुरुष जब सभी प्राणियों में मुझे ही भजता अर्थात् मेरा ही भजन करता है, तो वह सभी सांसारिक कार्य करता हुआ भी मेरे लिए ही कार्य करता है अर्थात् उसके सभी कार्य मुझमें ही समर्पित होते हैं ।

 

 

श्रेष्ठ अथवा उत्कृष्ट योगी के लक्षण

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।। 32 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे अर्जुन ! जो अपने अनुसार ही बाकी सभी को देखता है अर्थात् जो सभी के प्रति समदृष्टि रखता है और जो अपने सुख – दुःख के समान ही दूसरों का सुख- दुःख समझता है, वह मेरी दृष्टि में उत्कृष्ट अथवा श्रेष्ठ योगी है ।

 

 

 

मन की चंचलता

 

अर्जुन उवाच


योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्‌ ।। 33 ।।

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्‌ ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌ ।। 34 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  अर्जुन कहता है – हे मधुसूदन ! आपने साम्यबुद्धि से उत्पन्न होने वाले जिस योग का वर्णन मेरे सामने किया था, मन की चंचल गति के कारण मैं उसकी स्थिर स्थिति नहीं देख पा रहा हूँ अर्थात् मन की गति चंचल होने की वजह से वह मुझे व्यवहारिक नहीं लग रहा है –

 

क्योंकि हे कृष्ण ! यह मन अत्यंत चंचल, मथने वाला ( बुद्धि को भ्रमित करने वाला ), बलवान और मजबूत है, वायु को नियंत्रण में रखना जितना कठिन है, उतना ही कठिन उस मन को नियंत्रण में रखना है ।

 

 

विशेष :-  ऊपर वर्णित श्लोक में मन की चंचलता का वर्णन किया गया है । अर्जुन मन को नियंत्रण में करना अत्यंत कठिन कार्य समझता है, तभी वह उसकी तुलना वायु के साथ करता है । भगवान श्रीकृष्ण भी अर्जुन की इस बात पर सहमति जताते हुए कहते हैं कि इस मन को नियंत्रण में करना कठिन अवश्य है, लेकिन असम्भव नहीं है ।

 

आगे मन को नियंत्रण में करने के उपायों की चर्चा की गई है ।

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  1. सब जीवों में एकीभाव उस परमतत्व का नूर है,
    ऐसी जिसकी बुद्धि हो वो योगी समत्वशील है।

  2. ॐ गुरुदेव!
    मन के स्वरूप की सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत की है आपने।
    आपको हृदय से आभार।

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