प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ।। 27 ।।
व्याख्या :- इस प्रकार चंचल मन को एकाग्र करके अपनी आत्मा के अधीन करने से मन पूरी तरह से शान्त होकर निष्पाप अर्थात् पाप रहित हो जाता है । मन के शान्त होने पर साधक का रजोगुण भी शान्त हो जाएगा, जिससे वह परमात्मा में स्थित होकर उत्तम सुख अर्थात् सबसे अच्छे सुख को प्राप्त करता है ।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ।। 28 ।।
व्याख्या :- उपर्युक्त विधि का निरन्तर पालन करने से योगी सभी पापों से छूटकर, सहजरूप से परमात्मा द्वारा प्रदत्त ( प्रदान किया जाने वाले ) अनन्त सुख अथवा आनन्द का अनुभव करता है ।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।। 29 ।।
व्याख्या :- जब योगी सभी प्राणियों में अपने आप को और अपने आप में सभी प्राणियों को देखने लगता है, तब वह योगयुक्त योगी सभी को एक समान दृष्टि से देखने वाला अर्थात् समदर्शी बन जाता है ।
परमात्मा व पुरुष का एकात्म भाव
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।। 30 ।।
व्याख्या :- जो पुरुष सभी प्राणियों को मुझमें और मुझे सभी प्राणियों में देखता है, वह कभी भी मुझसे अलग नहीं होता और न ही मैं उससे कभी अलग होता हूँ ।
Guru ji nice explain about yogi character.