यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ।। 19 ।।

 

 

व्याख्या :-  जिस प्रकार वायुरहित ( जहाँ पर वायु का आवागमन न हो ) स्थान पर रखे हुए दीपक की ज्योति अर्थात् लौ निश्चल अर्थात् स्थिर होती है, वैसी ही निश्चल अथवा स्थिर अवस्था संयमित चित्त वाले योगी साधक की हो जाती है ।

 

 

 

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ।। 20 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  जब साधक ध्यानयोग से अपनी सभी चित्त वृत्तियों का निरोध कर लेता है, तब उसके चित्त की चंचलता भी नष्ट हो जाती है । एकाग्रचित की इस अवस्था में योगी साधक अपने आत्मस्वरूप में स्थित होकर परमानन्द को प्राप्त करता है ।

 

 

 

ध्यानयोग का फल

 

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌ ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ।। 21 ।।

 

 

व्याख्या :-  ध्यानयोग के अभ्यास से साधक को आत्यन्तिक अर्थात् कभी भी समाप्त न होने वाले सुख की प्राप्ति होती है । यह सुख इन्द्रियों के विषयों से परे अर्थात् दूर होता है, जिसे केवल सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ही ग्रहण किया जा सकता है । इस आत्यन्तिक सुख को प्राप्त करने के बाद साधक तत्त्वज्ञान द्वारा भी विचलित नहीं होता ।

 

 

 

 

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ।। 22 ।।

 

 

व्याख्या :-  ध्यानयोग से प्राप्त होने वाले आत्यन्तिक सुख के लाभ को प्राप्त करने के बाद साधक को उससे बढ़कर अन्य कोई लाभ नजर नहीं आता और इस स्थिति में बड़े से बड़ा दुःख भी योगी को विचलित अथवा दुःखी नहीं कर पाता ।

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  1. ॐ गुरुदेव!
    ध्यानयोग की बहुत सुंदर व्याख्या प्रस्तुत की है आपने।
    आपको हृदय से परम आभार व्यक्त करता हूं।

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