दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ।। 25 ।।

 

 

व्याख्या :-  कुछ योगीजन देवताओं की पूजा- उपासना रूपी यज्ञ ( हवन ) करते हैं और कुछ परमात्मा रूपी ब्रह्माग्नि में स्वयं को समर्पित करके यज्ञ ( हवन ) करते हैं अर्थात् अपने अहंभाव को छोड़कर परमात्मा में पूर्ण रूप से समर्पण करते हैं ।

 

 

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ।। 26 ।।

 

 

व्याख्या :-  कुछ योगीजन अपनी कान, आँख, जिह्वा, नासिका और त्वचा आदि ज्ञानेन्द्रियों का संयम रूपी अग्नि में हवन करते हैं और कुछ शब्द, रूप, रस, गन्ध व स्पर्श आदि ज्ञानेन्द्रियों के विषयों का इन्द्रिय रूपी अग्नि में हवन करते हैं ।

 

 

विशेष :-  जो योगी अपनी इन्द्रियों का संयम रूपी अग्नि में हवन करते हैं वह संयमित रहते हुए अपनी इन्द्रियों से अपने आवश्यक कार्यों की पूर्ति करते हैं और जो योगी अपनी इन्द्रियों के विषयों का इन्द्रियों में हवन करते हैं, वह अपनी सभी कामनाओं का सम्पूर्ण रूप से त्याग कर देते हैं ।

 

ऊपर वर्णित श्लोक में पाँच ज्ञानेन्द्रियों व उनके विषयों की बात कही गई है । इनके विषय में भी कई बार परीक्षा में पूछ लिया जाता है कि किस ज्ञानेंद्रि का क्या विषय है ? हम यहाँ पर सभी ज्ञानेन्द्रियों को उनके विषयों के साथ लिख रहे हैं :-

 

कर्ण ( कान ) > शब्द ( सुनना )

नेत्र ( आँख ) > रूप ( देखना )

जिह्वा ( जीभ ) > रस ( चखना )

नासिका ( नाक ) > गन्ध ( सूँघना )

त्वचा ( स्किन, चमड़ी ) > स्पर्श ( छूना या महसूस करना )

 

 

 

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ।। 27 ।।

 

 

व्याख्या :-  इसके अतिरिक्त कुछ योगी अपनी समस्त इन्द्रियों की सभी क्रियाओं और प्राणों की समस्त क्रियाओं का ज्ञान से प्रकाशित आत्मसंयम योग रूपी अग्नि में हवन करते हैं ।

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