द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।। 28 ।।

 

 

व्याख्या :-  इस प्रकार बहुत सारे संयमी पुरुष हैं, जो द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ व  ज्ञानयज्ञ आदि व्रतों का अनुशासित रूप से पालन करते हैं ।

 

 

 

विशेष :-  इस श्लोक में वर्णित गूढ़ शब्दों का अर्थ इस प्रकार है :-

 

द्रव्ययज्ञ :- द्रव्य का अर्थ पदार्थ होता है, इसलिए समाज या लोकहित के लिए सांसारिक साधनों को उपलब्ध करवाना द्रव्य यज्ञ कहलाता है । जैसे- जरूरतमंदों को भोजन, वस्त्र व दवाईयाँ आदि उपलब्ध करवाना ।

 

तपोयज्ञ :-  सभी प्रकार की अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों को सहजता से सहन करते हुए कर्तव्य का पालन करना ही तपोयज्ञ कहलाता है ।

 

योगयज्ञ :-  योग साधना द्वारा शरीर व मन पर नियंत्रण पाकर, मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होना योगयज्ञ कहलाता है ।

 

स्वाध्याय यज्ञ :-  मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन करना स्वाध्याय यज्ञ कहलाता है ।

 

 

ज्ञानयज्ञ :-  विवेक व वैराग्य आदि सदगुणों का पालन करते हुए साधना मार्ग पर निरन्तर बढ़ते रहना ज्ञानयज्ञ कहलाता है ।

 

 

 

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ।। 29 ।।
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ।। 30 ।।

 

 

व्याख्या :-  कुछ योगी साधक अपान वायु का प्राण वायु में और प्राण वायु का अपान वायु में हवन करते हैं, वहीं कुछ दूसरे साधक प्राणायाम के लिए आरूढ़ ( तैयार ) होकर प्राण व अपान वायु की गति को रोककर ।

 

कुछ साधक अपने आहार को नियमित करके, प्राणों का प्राणों में ही हवन करते हैं और यह सभी ऊपर वर्णित साधक पापों को नष्ट करने वाले यज्ञ के सभी रहस्यों को जानते हैं ।

 

 

विशेष :-  ऊपर वर्णित श्लोक में प्राण व अपान वायु का वर्णन किया गया है । परीक्षा व ज्ञान की दृष्टि से इनको जानना बहुत आवश्यक है ।

 

प्राणवायु :-  जो वायु हम नासिका मार्ग से शरीर के भीतर भरते हैं, वह प्राणवायु कहलाती है । दूसरे शब्दों में इसे पूरक भी कहा जाता है ।

 

अपानवायु :- जो वायु हम अपने शरीर से बाहर निकालते हैं, वह अपानवायु कहलाती है । दूसरे शब्दों में इसे रेचक भी कहते हैं ।

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