योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।। 41 ।।
व्याख्या :- हे धनंजय ! जिस मनुष्य ने योग द्वारा अपने सभी कर्मों का व ज्ञान द्वारा सभी संशयों को दूर ( त्याग ) कर दिया है, उस आत्मज्ञानी पुरूष को कर्मबन्धन कभी नहीं बाँधते ।
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ।। 42 ।।
व्याख्या :- इसलिए हे भारत ! ( अर्जुन ) तुम हृदय में बैठे उस अज्ञान से जनित संशय को ज्ञानरूपी तलवार से काट कर, स्वयं मो समस्थिति में स्थिर करके अपने कर्तव्य कर्म को करने के लिए अर्थात् युद्ध करने के लिए खड़ा हो जा ।
विशेष :- जिस प्रकार अँधेरे को उजाले से ही दूर किया जा सकता है, ठीक उसी प्रकार अज्ञान को भी ज्ञान द्वारा ही दूर किया जा सकता है । ऊपर वर्णित योग शब्द को यहाँ पर समत्वं योग के अर्थ में प्रयोग किया गया है ।
Dr sahab nice explain about samtatva yoga.