यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्‌ ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ।। 31 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे कुरुवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! यज्ञ से बचा हुआ अवशेष अर्थात् यज्ञ के बाद बचे हुए पदार्थों का सेवन करना अमृत के समान होता है, ऐसा करने वाले साधक उस सनातन परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं । इसके विपरीत जो लोग यज्ञ का अनुष्ठान नहीं करते हैं, वह इस लोक अथवा संसार में सुख प्राप्त नहीं कर पाते हैं, फिर परलोक अथवा दूसरे लोक की तो बात ही क्या है ? अर्थात् फिर उन्हें दूसरे लोक में तो सुख प्राप्त हो ही नहीं सकता ।

 

 

 एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ।। 32 ।।

 

व्याख्या :-   इस प्रकार ब्रह्मा के मुख से ऐसे बहुत सारे यज्ञों के विषय में विस्तार पूर्वक कहा गया है । यज्ञ के द्वारा सम्पन्न किए गए उन सभी कर्मों को जानकर ही मोक्ष की प्राप्ति होगी ।

 

 

 

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।। 33 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे परन्तप अर्जुन ! द्रव्ययज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ ज्यादा श्रेष्ठ है क्योंकि हे पार्थ ! अन्त में सभी कर्मों का विलय ( समापन ) ज्ञान में ही होता है ।

 

 

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ।। 34 ।।

 

 

व्याख्या :-  सेवाभाव से उन तत्त्व ज्ञानियों के पास जाकर, उन्हें विधिवत रूप से नम्रता अथवा श्रद्धा पूर्वक प्रणाम करके, उनसे प्रश्न करके उस ज्ञान को जानो । इस प्रकार वह तत्त्वज्ञानी तुम्हें अवश्य ही उस ज्ञान का उपदेश करेंगे ।

 

 

 

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ।। 35 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे पाण्डव ! ( अर्जुन ) उस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद तुम्हें फिर कभी यह मोह नहीं होगा अथवा तुम दोबारा कभी इस मोह के जाल में नहीं फँसोगे । इस ज्ञान को जानने के बाद तुम सभी प्राणियों को पहले स्वयं में और फिर मुझमें देखोगे ।

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