निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌ ।। 21 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  जो मनुष्य अपने चित्त व आत्मा को अपने वश में करके, कर्मफल की आसक्ति को त्यागकर और सभी प्रकार के परिग्रह ( अनावश्यक विचारों अथवा वस्तुओं के संग्रह ) को त्यागकर, केवल शारीरिक कर्म करता हुआ कभी भी पाप का भागी नहीं बनता ।

 

 

 

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ।। 22 ।।

 

 

व्याख्या :-  जो मनुष्य बिना कर्मफल की इच्छा के जो भी सहजता से प्राप्त हो जाए, उसी में सन्तुष्ट रहता है, जो सभी द्वन्द्वों व ईर्ष्या से रहित है तथा कार्य की सिद्धि अर्थात् सफलता और असिद्धि अर्थात् असफलता में समभाव ( सम अथवा सामान्य ) में रहता है, वह कर्म करते हुए भी कर्मबन्धन में नहीं बँधता अथवा वह कभी भी कर्मबन्धन से पीड़ित नहीं होता ।

 

 

विशेष :-  सहजता का अर्थ है जो बिना किसी इच्छा के प्राप्त हो जाए और द्वन्द्व का अर्थ है अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियाँ, जैसे- सुख- दुःख, मान- अपमान, जीत- हार, गर्मी- सर्दी, भूख- प्यास आदि ।

 

 

गतसङ्‍गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ।। 23 ।।

 

 

व्याख्या :-  जो मनुष्य आसक्ति रहित है, जो सभी दोषों से मुक्त हो गया है, जिसका चित्त ज्ञान में स्थिर हो चुका है, जो केवल यज्ञ की भावना से ही कर्म करता है, उसके सभी कर्म विलीन हो जाते हैं अर्थात् उसके सभी कर्म अकर्म में बदल जाते हैं ।

 

 

विशेष :-  लोकहित में किये जाने वाले प्रत्येक कर्म को यज्ञकर्म कहा जाता है । जिस कार्य में किसी का भी अहित नहीं होता, वह यज्ञकर्म कहलाता है । अगले श्लोक में यज्ञ के स्वरूप का ही वर्णन किया गया है ।

 

 

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌ ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ।। 24 ।।

 

 

व्याख्या :-  जिस यज्ञ में सर्वस्व ब्रह्मा ही है अर्थात् सबकुछ ब्रह्मा ही है :- यज्ञ में डाली जाने वाली सामग्री भी ब्रह्मा है, यज्ञ करने के सभी पदार्थ भी ब्रह्मा हैं, स्वयं यजमान ( यज्ञ करवाने वाला ) भी ब्रह्मा है, अग्नि में डाली गई आहुति भी ब्रह्मा है और यज्ञ से प्राप्त होने वाला फल भी स्वयं ब्रह्मा ही है अर्थात् सबकुछ ब्रह्म ही है । इस प्रकार जब मनुष्य सपने अहंभाव को त्यागकर सबकुछ ब्रह्म को ही समर्पित कर देता है, तब वह स्वयं भी उस ब्रह्म में ही लीन हो जाता है ।

 

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