कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ।। 51 ।।
व्याख्या :- समबुद्धि से युक्त मनीषी अथवा ऋषिगण प्रत्येक कर्म ( कार्य ) को फल की आसक्ति ( इच्छा ) से रहित होकर करते हैं । जिससे वह जन्म- मरण के बन्धन व दुःखों अथवा शोक से पूरी तरह मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं ।
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ।। 52 ।।
व्याख्या :- जिस समय तुम्हारी ( अर्जुन ) बुद्धि अपने स्वजनों के मोह रूपी दलदल से पूरी तरह से मुक्त हो जाएगी अथवा इस दलदल को पार कर जाएगी । तब तुमने जो सुना है या जो सुनना शेष ( बचा ) है । उन सबके प्रति तुम्हे उदासीनता अथवा वैराग्य का भाव आ जाएगा ।
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।। 53 ।।
व्याख्या :- शास्त्रों अथवा मतों की अलग- अलग प्रकार की बातें सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि समाधि वृत्ति से पूरी तरह स्थिर व शान्त हो जाएगी । इसी के कारण तुम्हे योग अर्थात् समत्वं योग की प्राप्ति होगी ।
Dhyanawaad guruji
Dr sahab nice explain about sumbuddi human being.
Prnam Aacharya ji… This salika is so much heart touching….. Well explained,
ॐ गुरुदेव !
आपका हृदय से आभार प्रेषित करता हूं।