विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ।। 59 ।।

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ।। 60 ।।

 

 

व्याख्या :-  निराहार अर्थात् आहार के न ग्रहण करने के कारण शरीर में दुर्बलता आती है । जिसके कारण मनुष्य की विषयों ( कामनाओं ) के प्रति आसक्ति बाहरी रूप से छूट जाती है । लेकिन फिर भी उसमें विषयों के प्रति आन्तरिक आसक्ति बनी रहती है । परन्तु जिसने परब्रह्म को प्राप्त कर लिया हो, उसकी सभी सभी कामनाएं अथवा विषयों के प्रति आसक्ति स्वयं ही छूट जाती है ।

 

हे कौन्तेय ! इसका कारण यह है कि विषयों के प्रति आसक्त प्रबल इन्द्रियाँ प्रयत्नशील व्यक्ति के मन को विषयों की ओर बलपूर्वक ( जबरदस्ती ) अपनी ओर आकर्षित ( खींच ) कर लेती हैं ।

 

 

विशेष :-  जो व्यक्ति निराहार अर्थात् भूखे पेट रहता है या जिसे खाने के लिए खाना नहीं मिल पाता । उस व्यक्ति की इन्द्रियाँ कमजोर होने के कारण काम – विषयों के प्रति आसक्त नहीं होती हैं । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होता कि उसको विषयों के प्रति वैराग्य हो गया है । बल्कि शारीरिक कमजोरी के कारण ऐसा होता है । जैसे ही उसे खाने के लिए उपयुक्त आहार मिलता है । वैसे ही उसकी विषयों के प्रति आसक्ति फिर से बढ़ने लगती है । परन्तु जब साधक को परब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है । तब उसे सभी कामनाओं या विषय – वासनाओं से वैराग्य हो जाता है ।

 

 

 

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। 61 ।।

 

 

व्याख्या :-  अतएव साधक को संयम अर्थात् समत्वं योग का पालन करते हुए अपनी सभी इन्द्रियों को अपने अधीन करके परमात्मा का सहारा अथवा आश्रय लेकर ध्यान में बैठना चाहिए । ऐसा करने से साधक की सभी इन्द्रियाँ उसके वश में हो जाती हैं और जैसे ही उसकी इन्द्रियाँ उसके वश में हो जाती हैं । वैसे ही उसकी बुद्धि भी स्थिर हो जाती है ।

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  1. Nice explanation.

    Myself working on the TATTVA in GITA for the last 20 years within the verse 7:3 where GOD says with authority and clarity that in the ultimate analysis only a microscopic or minuscule group realises GOD. This means majority are ignorant of GOD and HIS true inheritance.

    Would like share my work with like minded SOULS.

    Regards

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