कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ।। 72 ।।
व्याख्या :- भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से पूछते हैं – हे पार्थ ! क्या तुमने इस ज्ञान को एकाग्र चित्त से सुना है ? और हे धनंजय ! क्या इससे तुम्हारा अज्ञान से जनित ( उत्पन्न ) मोह नष्ट हो गया ?
विशेष :- यह गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बोला गया अन्तिम श्लोक है ।
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव ।। 73 ।।
व्याख्या :- अर्जुन कहता है – हे अच्युत ! ( श्रीकृष्ण ) आपके द्वारा दिए गए ज्ञान की कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे मेरे कर्तव्य की स्मृति हो गई है अथवा मुझे मेरे कर्तव्य का बोध ( ज्ञान ) हो गया है । अब मैं सन्देह रहित होकर स्थिरता को प्राप्त हो गया हूँ और आपके कथन के अनुसार युद्ध करूँगा ।
विशेष :- यह अर्जुन द्वारा बोला गया अन्तिम श्लोक है, जिसमें वह गीता ज्ञान द्वारा अपने मोह के नष्ट होने की पुष्टि करता है और युद्ध के लिए तैयार हो जाता है ।
जिस प्रकार मैंने गीता के परिचय में गीता के इस अतुल्य ज्ञान को देने के पीछे जो ‘राग’ नामक तर्क दिया था, इस श्लोक में उसकी पुष्टि हो गई । इससे पहले वाले श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण पूछते हैं कि हे अर्जुन क्या इस गीता ज्ञान से तुम्हारा मोह नष्ट हुआ ? और उसके उत्तर में अर्जुन कहता है कि आप द्वारा दिए गए ज्ञान के कारण मेरा मोह नष्ट हो गया है ।
इन दोनों श्लोकों को सुनने से यह स्पष्ट हो जाता है कि अर्जुन कुरुक्षेत्र के मैदान में अपने सामने अपने स्वजनों को देखकर मोह उत्पन्न हो जाता है । इस अज्ञान जनित मोह की उत्पत्ति राग से होती है । हम सबका अपने परिचितों के प्रति एक विशेष प्रकार की आसक्ति अथवा लगाव होता है । जिसका मूल राग नामक क्लेश ही होता है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के अनुपम ज्ञान द्वारा इसी राग नामक क्लेश से उत्पन्न मोह को नष्ट करके अर्जुन को कर्तव्य कर्म के लिए तैयार करने का काम किया है ।
संजय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ।। 74 ।।
व्याख्या :- संजय ने धृतराष्ट्र से कहा – इस प्रकार मैंने वासुदेव श्रीकृष्ण और महात्मा अर्जुन के बीच में शरीर को रोमांचित करने वाले अद्भुत संवाद को सुना ।