मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
अथ चेत्वमहाङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ।। 58 ।।
व्याख्या :- सदा मुझमें ही चित्त लगाने वाला भक्त मेरे प्रसाद ( कृपा पात्र ) से ही जीवन के सभी संकटों पर विजय प्राप्त कर लेता है और यदि वह अहंकार के वशीभूत होकर मेरे वचनों को नहीं सुनता, तो वह निश्चित रूप से नष्ट हो जाता है ।
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ।। 59 ।।
व्याख्या :- अहंकार के वशीभूत होकर यदि तुम युद्ध न करने का निर्णय करते हो अर्थात् “मैं युद्ध नहीं करूँगा” इस प्रकार का निर्णय करते हो, तो यह तुम्हारा झूठा भ्रम है, क्योंकि तेरी प्रकृति ( तुम्हारा क्षत्रिय स्वभाव ) ही तुमसे बलपूर्वक अथवा तुम्हें मजबूर करके युद्ध करवाएगी ।
विशेष :-
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ।। 60 ।।
व्याख्या :- हे कौन्तेय ! मोह से ग्रस्त होने के कारण तुम जिस कार्य को नहीं कर रहे हो, अपने स्वभाव से मजबूर होने के कारण तुम्हें वह कार्य करना ही पड़ेगा ।
विशेष :-
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया ।। 61 ।।
व्याख्या :- हे अर्जुन ! जिस प्रकार यन्त्र ( कोई भी वाहन ) पर चढ़े हुए सभी यात्रियों को वह यन्त्र अपने अधीन रखकर उन्हें घुमाता रहता है, ठीक उसी प्रकार अन्तर्यामी परमात्मा भी अपनी माया- शक्ति से सभी प्राणियों को घुमाता हुआ उनके हॄदय में निवास करता है ।