ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ।। 54 ।।
व्याख्या :- वह ब्रह्मभूत ( ब्रह्मभाव को प्राप्त ) प्रसन्न चित्त व्यक्ति न ही तो किसी प्रकार की चिन्ता करता है और न ही किसी प्रकार की कोई इच्छा अथवा कामना करता है । सभी प्राणियों के प्रति समान भाव रखने वाला वह व्यक्ति मेरी उत्तम भक्ति को प्राप्त करता है ।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ।। 55 ।।
व्याख्या :- उस उत्तम भक्ति के माध्यम से वह मुझे, मैं जो हूँ और जितना भी हूँ, इसे यथार्थ रूप में जान लेने के बाद वह मनुष्य उत्कृष्ट भक्ति और तत्त्व ज्ञान द्वारा मुझमें प्रवेश कर जाता है ।
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ।। 56 ।।
व्याख्या :- सदैव मेरा ही आश्रय लेकर सभी प्रकार के कर्म करने वाला भक्त मेरी अनुकम्पा से ही मेरे सनातन और अविनाशी पद को प्राप्त करता है ।
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ।। 57 ।।
व्याख्या :- मन द्वारा अपने सभी कर्मों को मुझमें समर्पित करके मेरे प्रति पूरी तरह से आसक्त होकर, साम्यबुद्धि की सहायता से निरन्तर अपना चित्त मुझमें ही लगाओ ।