सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ।। 50 ।।
व्याख्या :- हे कौन्तेय ! मनुष्य इस निष्काम कर्म नामक श्रेष्ठ सिद्धि को प्राप्त करके, किस प्रकार ज्ञानयोग की पराकाष्ठा द्वारा ब्रह्म को प्राप्त करते हैं ? उस विधि को तुम मुझसे सार रूप में जान लो ।
ब्रह्म प्राप्ति के लक्षण
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च ।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ।। 51 ।।
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस ।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ।। 52 ।।
अहङकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। 53 ।।
व्याख्या :- विशुद्ध बुद्धि से युक्त, धैर्य द्वारा अपनी इन्द्रियों को नियंत्रण में रखने वाला और शब्दादि विषयों का त्याग करने वाला, राग व द्वेष से दूर रहने वाला व
एकान्त स्थान पर रहने वाला, हल्का भोजन करने वाला अर्थात् मिताहार का पालन करने वाला, वाणी, शरीर और मन को वश में करने वाला, नियमित रूप से ध्यानयोग का अभ्यास करने वाला, वैराग्य का आश्रय लेकर –
अहंकार, बल, दर्प ( घमंड ), काम – क्रोध और परिग्रह ( अनावश्यक विचारों अथवा वस्तुओं को ) छोड़कर, ममता ( मोह ) रहित तथा पूरी तरह से शान्त चित्त होता है, वही मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त करने के योग्य होता है ।