यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ।। 46 ।।
व्याख्या :- जिससे सभी प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिसमें यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, मनुष्य उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों से वन्दना ( पूजा ) करके परम सिद्धि को प्राप्त करता है ।
स्वधर्म की श्रेष्ठता
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ।। 47 ।।
व्याख्या :- किसी दूसरे के उत्कृष्ट धर्म से अपना स्वयं का गुण रहित धर्म भी श्रेष्ठ होता है । अपने स्वभाव से निर्धारित किए गए कर्म का आचरण करने वाला व्यक्ति कभी भी पाप को प्राप्त नहीं होता अर्थात् स्वधर्म के अनुसार कर्म करने वाला व्यक्ति कभी भी पापग्रस्त नहीं होता है ।
विशेष :- गीता का यह श्लोक व्यवहारिक रूप से बहुत ही उपयोगी है । मन की चंचलता के कारण हम नए – नए
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ।। 48 ।।
व्याख्या :- हे कौन्तेय ! जिस प्रकार अग्नि सदा धुएँ से युक्त होती है, ठीक उसी प्रकार सभी कर्म भी किसी न किसी दोष से युक्त होते हैं । इसलिए मनुष्य द्वारा अपने सहज कर्म को दोषयुक्त अथवा निकृष्ट होने पर भी नहीं छोड़ना चाहिए ।
विशेष :-
निष्काम कर्म सिद्धि
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ।। 49 ।।
व्याख्या :- जो मनुष्य सभी कर्मों के प्रति आसक्तिरहित बुद्धि रखते हुए, मन को नियंत्रण में रखता है और सभी प्रकार की तृष्णाओं से रहित होता है, वह कर्मफल संन्यास द्वारा नैष्कर्म्य सिद्धि अर्थात् निष्काम कर्म करने वाली श्रेष्ठ सिद्धि को प्राप्त करता है ।