न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।

सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिःस्यात्त्रिभिर्गुणैः ।। 40 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  इस पृथ्वी, आकाश, देवताओं तथा इनके भी अलावा कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो कि प्रकृति के सत्त्व, रज व तम नामक गुणों से मुक्त अथवा रहित हो अर्थात् पृथ्वी, आकाश, देवता व अन्य सभी वस्तु प्रकृति के तीनों गुणों से युक्त हैं ।

 

 

 

वर्ण व्यवस्था ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र )

 

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप ।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ।। 41 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे परन्तप अर्जुन ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म भी उनके स्वभाव से उत्पन्न गुणों के आधार पर अलग – अलग होते हैं ।

 

 

 

विशेष :-

  • गीता के किस अध्याय में वर्ण व्यवस्था का वर्णन किया गया है ? उत्तर है – अठाहरवें अध्याय में ।
  • गीता में कितने वर्ण बताए गए हैं ? उत्तर है – चार ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र )

 

 

 

ब्राह्मण वर्ण के कर्म अथवा गुण

 

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्‌ ।। 42 ।।

 

 

व्याख्या :-  शम, दम, तप, शुद्धि, क्षमाशील, सरलता, ज्ञान – विज्ञान से युक्त और आस्तिकता – ये सभी ब्राह्मण के स्वाभाविक गुण अथवा कर्म हैं ।

 

 

 

क्षत्रिय वर्ण के कर्म अथवा गुण

 

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्‌ ।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्‌ ।। 43 ।।

 

 

व्याख्या :-  शूरवीरता, तेजस्विता, धैर्य, दक्षता, युद्ध- क्षेत्र में डटे रहना, दानी, राज्य पर शासन करना – ये सभी एक क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म अथवा गुण होते हैं ।

 

 

 

वैश्य और शूद्रों के कर्म अथवा गुण

 

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्‌ ।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्‌ ।। 44 ।।

 

 

व्याख्या :-  कृषि ( खेती ) करना, गोपालन ( गाय आदि पशुओं को पालना ) और व्यापार करना ये सभी वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सभी वर्णों की सेवा करना शूद्रों का स्वाभाविक कर्म अथवा गुण है ।

 

 

 

विशेष :-  ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के स्वाभाविक कर्म परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी हैं ।

 

 

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।

स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ।। 45 ।।

 

 

व्याख्या :-  अपने – अपने स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार कार्यों में प्रवृत्त ( तत्परता से लगा हुआ ) व्यक्ति परम सिद्धि को प्राप्त करता है । अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करने वाला व्यक्ति किस प्रकार सिद्धि को प्राप्त करता है ? अब उसे सुनो ।

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