सात्त्विक सुख के लक्षण

 

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ ।

अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ।। 36 ।।

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्‌ ।

तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्‌ ।। 37 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन ! अब तुम मुझसे सुख के भी तीन भेदों ( सात्त्विक, राजसिक व तामसिक ) को सुनो –

जिसके अभ्यास से व्यक्ति आनन्दित होकर दुःख के अन्त का अनुभव करता है-

 

जो आरम्भ में तो भले ही विष ( जहर ) के समान लगता हो, लेकिन अन्त में वह अमृत तुल्य हो जाता है । इस प्रकार जो सुख आत्मनिष्ठ बुद्धि के प्रसाद के रूप में प्राप्त होता है, वह सात्त्विक सुख कहलाता है ।

 

 

 

विशेष :-

  • सात्विक सुख में व्यक्ति क्या अनुभव करता है ? उत्तर है – दुःख के अन्त व आनन्द को ।

 

 

 

राजसिक सुख के लक्षण

 

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्‌ ।

परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्‌ ।। 38 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  इन्द्रियों और उनके विषयों के संयोग से जो सुख उत्पन्न होता है, वह आरम्भ में तो अमृत के समान लगता है, परन्तु अन्त में विष के समान हो जाता है, ऐसे सुख को राजसिक सुख कहा गया है ।

 

उदाहरण स्वरूप :- जिस प्रकार कुत्ते को हड्डी मिलने पर वह उसमें से मास खाने के लिए प्रयास करता रहता है और अन्त में अपने ही मुख से निकले रक्त को हड्डी से निकला हुआ समझकर उसे चाटने लगता है । जबकि वह रक्त उसके स्वयं के ही मुख से निकला हुआ होता है । ठीक इसी प्रकार निरन्तर विषय भोगों में लिप्त रहने वाला व्यक्ति भी यही समझता है कि मुझे इन विषयों से सुख की प्राप्ति हो रही है । जबकि इन्द्रियों से प्राप्त उस क्षणिक सुख से उसका निरन्तर पतन ही होता है । इसे ही राजसिक सुख कहते हैं ।

 

 

 

विशेष :-

  • राजसिक सुख की उत्पत्ति कैसे होती है ? उत्तर है – इन्द्रियों व उनके विषयों के संयोग से ।

 

 

 

तामसिक सुख के लक्षण

 

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः ।

निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्‌ ।। 39 ।।

 

 

व्याख्या :-  जो सुख आरम्भ व अन्तकाल दोनों ही स्थितियों में आत्मा को मोह में फँसाने वाला हो और जिसकी उत्पत्ति निद्रा, आलस्य तथा प्रमाद से होती है, वह तामसिक सुख कहलाता है ।

 

 

 

विशेष :-

तामसिक सुख की उत्पत्ति किससे होती है ? उत्तर है – निद्रा, आलस्य और प्रमाद से ।

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