सात्त्विक धृति के लक्षण
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः ।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ।। 33 ।।
व्याख्या :- हे पार्थ ! जिस योग ( ध्यानयोग ) और अपने स्थान पर अडिग रहने वाली धृति के द्वारा साधक अपने मन, प्राण और इन्द्रियों की सभी क्रियाओं को धारण कर लेता है, उसे सात्त्विकी धृति कहते हैं ।
विशेष :-
- सात्त्विकी धृति में साधक किन- किन को धारण करता है ? उत्तर है – मन, प्राण व इन्द्रियों की सभी क्रियाओं को ।
राजसिक धृति के लक्षण
यया तु धर्मकामार्थान्धत्या धारयतेऽर्जुन ।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ।। 34 ।।
व्याख्या :- हे पार्थ ! जब व्यक्ति आसक्तिपूर्ण होकर फल की इच्छा से धैर्यपूर्वक अपने धर्म, अर्थ और काम को धारण अथवा सिद्ध करता है, वह राजसी धृति कहलाती है ।
विशेष :-
- राजसिक धृति में धर्म, अर्थ व काम को किस भावना से पूर्ण किया जाता है ? उत्तर है – आसक्ति व फल की इच्छा से ।
तामसिक धृति के लक्षण
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ।। 35 ।।
व्याख्या :- हे पार्थ ! जिस धृति के द्वारा मनुष्य दुर्बुद्धि से युक्त होकर निद्रा, भय, चिन्ता, दुःख और मद ( सुस्ती ) को धारण करता है, वह तामसी धृति कहलाती है ।
विशेष :-
- तामसी धृति में मनुष्य किस प्रकार की बुद्धि से युक्त हो जाता है ? उत्तर है – दुर्बुद्धि से ।
तामसी बुद्धि में मनुष्य किन- किन को धारण करता है ? उत्तर है – निद्रा, भय, शोक, दुःख और मद को ।