बुद्धि और धृति के भेद
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय ।। 29 ।।
व्याख्या :- हे धनंजय ! गुणों के आधार पर बुद्धि और धृति के भी तीन अलग – अलग भेद होते हैं । अब तुम इनको सम्पूर्णता के साथ सुनो ।
विशेष :-
- गुणों के आधार पर बुद्धि और धृति के कितने भेद कहे गए हैं ? उत्तर है – तीन – तीन ।
सात्त्विक बुद्धि के लक्षण
प्रवत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ।। 30 ।।
व्याख्या :- हे पार्थ ! जो बुद्धि यह जानती है कि प्रवृत्ति क्या है और निवृत्ति क्या है, कौन सा कर्म करने योग्य है और कौन सा कर्म करने योग्य नहीं है, भय क्या है और अभय क्या है, कौनसा कर्म बन्धन में बाँधता है और कौनसा कर्म मुक्ति प्रदान करवाता है ? वही सात्त्विकी बुद्धि है ।
राजसिक बुद्धि के लक्षण
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ।। 31 ।।
व्याख्या :- हे पार्थ ! जो बुद्धि धर्म क्या है और अधर्म क्या है तथा कार्य क्या है और अकार्य क्या है ? इसे यथार्थ रूप अर्थात् वास्तविक रूप में नहीं जानती, वह राजसी बुद्धि कहलाती है ।
तामसिक बुद्धि के लक्षण
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ।। 32 ।।
व्याख्या :- हे पार्थ ! जो बुद्धि तमोगुण से व्याप्त ( घिरी हुई ) होने के कारण अधर्म को धर्म समझती है और इसी प्रकार जिसकी सभी के प्रति विपरीत धारणा रहती है, वह तामसी बुद्धि होती है ।