सात्त्विक कर्ता के लक्षण

 

मुक्तसङ्‍गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।

सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ।। 26 ।।

 

 

व्याख्या :-  जो कर्ता आसक्ति और अहंकार से मुक्त होकर धैर्य तथा उत्साह के साथ कार्य की सफलता और असफलता में स्वयं को निर्विकार ( समभाव ) बनाए रखता है, उसे सात्त्विक कर्ता कहते हैं ।

 

 

 

राजसिक कर्ता के लक्षण

 

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः ।

हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ।। 27 ।।

 

 

व्याख्या :- जिस कर्ता का विषयों के प्रति राग है, जो फल प्राप्ति की इच्छा रखता है, जो लोभी प्रवृत्ति वाला है, जो हिंसा के भाव से युक्त है, जो अपवित्र आचरण करता है, जो कार्य की सफलता में हर्ष और कार्य की विफलता में शोक करता है, वह राजसिक कर्ता कहलाता है ।

 

 

तामसिक कर्ता लक्षण

 

आयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोनैष्कृतिकोऽलसः ।

विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ।। 28 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  असावधानी से युक्त, अशिक्षित, अकड़ वाला, दुष्ट, बदले की भावना रखने वाला, आलसी, विषाद से युक्त व प्रत्येक कार्य को देरी से करने वाला तामसिक कर्ता कहलाता है ।

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