सात्त्विक कर्म
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ।। 23 ।।
व्याख्या :- जो कर्म शास्त्रों के अनुसार आसक्ति, राग, द्वेष व फल की इच्छा से रहित होकर किया जाता है, वह सात्त्विक कर्म कहलाता है ।
राजसिक कर्म
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः ।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ।। 24 ।।
व्याख्या :- परन्तु जिस कर्म को करने में अत्यधिक परिश्रम करना पड़ता हो तथा जो अहंकार से युक्त होकर कामनाओं की पूर्ति के लिए किया जाता है, वह राजस ( राजसिक ) कर्म कहलाता है ।
तामसिक कर्म
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ।। 25 ।।
व्याख्या :- जो कर्म बिना हानि, हिंसा और सामर्थ्य पर विचार किए, अज्ञानपूर्वक किया जाता है, उस कर्म परिणाम को तामसिक कहते हैं ।