अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ।। 16 ।।
व्याख्या :- सभी प्राणियों में उसकी उपस्थिति होने से वह अविभक्त ( जिसके अन्य भाग न हो सके ) होते हुए भी विभक्त है, सभी प्राणियों को उत्पन्न भी वही करता है और सभी को नष्ट करने वाला भी वही है । वही जानने योग्य है ।
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ।। 17 ।।
व्याख्या :- वह ज्योति ( प्रकाश ) का भी ज्योति और अंधकार से भी परे ( दूर ) है, उसे ज्ञान द्वारा ही जाना व प्राप्त किया जा सकता है, वही सबके हृदय में विशिष्ट रूप से स्थित है ।
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ।। 18 ।।
व्याख्या :- मैंने क्षेत्र ( शरीर ) क्या है ? ज्ञान ( जिसके द्वारा जाना जाता है ) क्या है ? और ज्ञेय ( परमात्मा ) क्या है ? आदि का संक्षिप्त वर्णन किया है । इस प्रकार मेरा भक्त मेरे स्वरूप को जानकर मुझे ही प्राप्त हो जाएगा ।
विशेष :- ऊपर वर्णित सभी श्लोकों में ज्ञेय अर्थात् परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया गया है । परीक्षा की दृष्टि से ये सभी श्लोक महत्वपूर्ण हैं ।
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ।। 19 ।।
व्याख्या :- यह प्रकृति और पुरुष दोनों ही तत्त्व अनादि हैं, सभी गुण तथा विकारों को इस प्रकृति से ही उत्पन्न हुए समझो अर्थात् सभी गुण तथा विकार प्रकृति से ही उत्पन्न हुए हैं।
विशेष :-
- गुण और विकार किससे उत्पन्न होते हैं ? उत्तर है – प्रकृति से ।
- गीता के अनुसार प्रकृति व पुरुष को क्या माना गया है ? उत्तर है – अनादि ।
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Guru Ji nice explain about parkari and purusa