यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।

सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ।। 32 ।।

 

 

व्याख्या :-  जिस प्रकार चारों ओर व्याप्त आकाश सूक्ष्म रूप में होने के कारण किसी के साथ लिप्त ( लीन ) नहीं होता, ठीक उसी प्रकार यह आत्मा भी सम्पूर्ण शरीर में स्थित होते हुए भी शरीर के साथ लिप्त अथवा लीन नहीं होता ।

 

 

 

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।

क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ।। 33 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे भारत ! जिस प्रकार एक सूर्य अपने प्रकाश से इस सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, ठीक उसी प्रकार यह आत्मा भी पूरे शरीर को प्रकाशित करता है ।

 

 

क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ के भेद का ज्ञान = मुक्ति

 

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।

भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्‌ ।। 34 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  इस प्रकार जो ज्ञानीलोग क्षेत्र ( शरीर ) और क्षेत्रज्ञ ( आत्मा ) तथा प्रकृति और पुरुष के भेद को अपने ज्ञान द्वारा देख अथवा जान लेते हैं, वे उस परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् वे ज्ञानीजनों मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं ।

 

 

 

तेरहवां अध्याय ( क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ विभागयोग ) पूर्ण हुआ ।

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