कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ।। 20 ।।
व्याख्या :- कार्य तथा करण अर्थात् शरीर तथा इन्द्रियों के उत्पन्न होने का हेतु अर्थात् कारण प्रकृति है और सुख- दुःख को भोगने का हेतु अर्थात् कारण यह पुरुष अर्थात् आत्मा होता है ।
विशेष :-
- कार्य तथा करण का हेतु अथवा उत्पत्ति कर्ता कौन है ? उत्तर है – प्रकृति ।
- सुख- दुःख किसके द्वारा भोगा जाता है ? उत्तर है – पुरुष ( आत्मा ) द्वारा ।
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।। 21 ।।
व्याख्या :- इस प्रकृति में स्थित पुरुष ही प्रकृति से उत्पन्न होने वाले गुणों ( सत्त्व, रज व तम ) का उपभोग करता है । पुरुष की प्रकृति के गुणों के प्रति आसक्ति ही उसके आने वाली योनियों का कारण बनती है अर्थात् गुणों के प्रति आसक्ति के चलते ही पुरुष को बार- बार अच्छी व बुरी योनियों में जन्म लेना पड़ता है ।
विशेष :-
- पुरुष द्वारा बार- बार जन्म लेने का मुख्य कारण क्या है ? उत्तर है – प्रकृति जन्य गुणों में आसक्ति अर्थात् लगाव ।
परम पुरुष = परमात्मा
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ।। 22 ।।
व्याख्या :- इस शरीर में स्थित उस परम पुरुष को ही परमात्मा, उपदृष्टा अर्थात् सबकुछ देखने वाला, अनुमन्ता अर्थात् अनुमति देने वाला, भर्ता अर्थात् आनन्द प्रदान करने वाला, भोक्ता अर्थात् भोग करने वाला और महेश्वर अर्थात् स्वामी कहते हैं ।
प्रकृति- पुरुष का ज्ञान = पुनर्जन्म मुक्ति
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ।। 23 ।।
व्याख्या :- इस प्रकार जो मनुष्य पुरुष तथा प्रकृति को उनके गुणों सहित जानता है, वह सभी सामान्य कर्म करता हुआ भी मुक्ति को प्राप्त कर लेता है अर्थात् जो प्रकृति व पुरुष को गुणों सहित जान लेता है, वह सदा सामान्य व्यवहार करने पर भी जन्म- मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है ।
Very best explain sir ????????
Nice explain about purusa and parkari knowledge
Prnam Aacharya ji Dhanyavad om