समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ।। 28 ।।
व्याख्या :- जो मनुष्य उस अविनाशी परमेश्वर को सभी प्राणियों में समान रूप से स्थित देखकर अपनी आत्मा में हीन – भावना नहीं आने देता, वह निश्चित रूप से परमगति को प्राप्त होता है ।
प्रकृति कर्ता – आत्मा अकर्ता
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ।। 29 ।।
व्याख्या :- जो पुरूष प्रकृति को ही सभी क्रियाओं का कर्ता ( करने वाला ) मानते हुए स्वयं को अकर्ता मानता है, वही सच्चा दृष्टा है ।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ।। 30 ।।
व्याख्या :- जब भी कोई मनुष्य प्राणियों के अलग- अलग भावों को एक ही परमात्मा में स्थित देखता है और उसी परमात्मा से वह उन सभी प्राणियों के विस्तार को देखता है, तो तभी वह पुरुष ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है ।
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ।। 31 ।।
व्याख्या :- हे कौन्तेय ! अनादि व गुणों से रहित होने के कारण ही यह अविनाशी परमात्मा शरीर में रहते हुए भी न तो कुछ करता है और न ही किसी कर्म में लिप्त होता है ।
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