क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ।। 5 ।।
व्याख्या :- जिनके चित्त में आसक्ति का भाव भरा हुआ है, उनके लिए मेरे इस अव्यक्त ( निराकार ) स्वरूप की उपासना करने में अधिक कठिनाई या पीड़ा का अनुभव होता है, क्योंकि देहधारी मनुष्यों द्वारा अव्यक्त उपासना के मार्ग को प्राप्त करना बहुत कष्टकारी होता है ।
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ।। 6 ।।
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ।। 7 ।।
व्याख्या :- लेकिन जो भक्त अपने सभी कर्मों का मुझमें पूर्णतया ( पूर्ण रूप से ) समर्पण करके, अनन्य भक्तिभाव से मेरा ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं –
हे पार्थ ! मुझमें अपने मन को लगाकर मुझपर आश्रित रहने वाले ऐसे भक्तों को मैं इस मृत्यु रूपी संसार – सागर से बिना किसी विलम्ब अर्थात् देरी के पार लगा देता हूँ अथवा बिना एक पल की देरी किए उनका उद्धार कर देता हूँ । इसमें किसी तरह का कोई सन्देह ( शक ) नहीं है ।
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ।। 8 ।।
व्याख्या :- इसलिए तुम अपने मन व बुद्धि को मुझमें स्थिर करो, ऐसा करने से तुम मुझमें ही निवास करोगे, इसमें किसी प्रकार का कोई संशय नहीं है ।
उम्दा
Best explain sir ????????
Nice guru ji
ॐ गुरुदेव!
अति उत्तम व्याख्या।