फलासक्ति का त्याग

 

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्‌ ।। 11 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  यदि तुम मेरे लिए कर्म करने में भी असमर्थ हो अर्थात् यदि तुम अपने समस्त कर्मों को मुझमें समर्पित करने में भी समर्थ नहीं हो, तो तुम मेरा आश्रय लेकर अपनी आत्मा को बलवान बनाते हुए सभी कर्मों के फल के प्रति अनासक्त भाव से युक्त हो जाओ अर्थात् अपने सभी कर्मों के फल की इच्छा का त्याग करदो ।

 

 

 कर्मफल का त्याग = शान्ति की प्राप्ति

 

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्‌ ।। 12 ।।

 

 

 

व्याख्या :-  अभ्यास योग से ज्ञानयोग श्रेष्ठ है, ज्ञानयोग से ध्यानयोग अधिक श्रेष्ठ है और ध्यानयोग से भी कर्मफल का त्याग अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि कर्म फल का त्याग करने से साधक को शीघ्र ही शान्ति की प्राप्ति होती है ।

 

 

विशेष :- यह श्लोक परीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । इससे सम्बंधित निम्न प्रश्न पूछे जा सकते हैं-

  • अभ्यास योग की अपेक्षा क्या श्रेष्ठ है ? उत्तर है- ज्ञानयोग ।
  • ज्ञानयोग से भी अधिक श्रेष्ठ किसे माना जाता है ? उत्तर है- ध्यानयोग को ।
  • ध्यानयोग से भी श्रेष्ठ अथवा सबसे उत्तम किसे माना जाता है ? उत्तर है- कर्मफल त्याग को ( कर्म फल की आसक्ति का त्याग ) ।

साधक को किसके पालन से शीघ्र ही शान्ति की प्राप्ति होती है ? उत्तर है- कर्मफल का त्याग करने से ।

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