अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ।। 16 ।।
व्याख्या :- जो भक्त किसी से किसी भी प्रकार की अपेक्षा ( उम्मीद ) नहीं रखता, जो पवित्र ( शुद्ध ) है, जिसके कार्यों में कुशलता है, जो सबके प्रति उदासीनता ( न किसी से दोस्ती न किसी से बैर ) का भाव रखता है, जो सभी मानसिक परेशानियों से रहित है तथा जिसने कर्मफल की आसक्ति से कर्म करना छोड़ दिया है, वही मेरा भक्त मुझे सबसे प्रिय है ।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ।। 17 ।।
व्याख्या :- जो न कभी किसी के प्रति हर्षित होता है और न ही कभी किसी के प्रति द्वेष रखता है, जो न तो किसी प्रकार की चिन्ता करता है और न ही किसी से कोई आकांक्षा ( उम्मीद ) रखता है, जो सभी शुभ व अशुभ कर्मफलों का त्याग कर चुका है, इस प्रकार की भक्ति भावना से युक्त भक्त ही मुझे प्रिय है ।
Prnam Acharya Ji . Nice.thank you
Dhanyawad Acharya ji
Bhadwadgita ko itni acchi tarah se samjhane ki liye.CEC me100 lectures or aapke youtube ke saare lectures koi bhi exam ke liye paryapt hai.
Nice guru ji about bagat.
Best explain sir ????????