काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥ 17 ।।
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक्‌ ॥ 18 ।।

 

 

व्याख्या :-  इसके बाद श्रेष्ठ धनुर्धर काशिराज, महारथी शिखण्डी, सेनापति धृष्टद्युम्न, राजा विराट, कभी भी पराजित न होने वाले सात्यिक, राजा द्रुपद, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों व सुभद्रा के पुत्र वीर अभिमन्यु ने भी युद्ध के लिए चारों ओर से अपने- अपने शंख बजाये ।

 

 

 

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्‌ ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्‌ ।। 19

 

 

व्याख्या :-  इन सभी शंखों से उत्पन्न भयानक घोष ( ध्वनि ) ने पूरी पृथ्वी और आकाश को गुँजाते हुए धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों के हृदय को विदीर्ण अर्थात् दिल को दहलाने या फाड़ने वाली ध्वनि पैदा कर दी ।

 

 

विशेष :-  पाण्डवों द्वारा बजाये गए सभी शंखों से इतनी भयंकर ध्वनि उत्पन्न हुई कि पूरी पृथ्वी और आकाश गुँजने लगा । यह ध्वनि इतनी भयानक थी जिसने धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों के दिलों को भी दहला दिया था ।

 

 

 

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्‌ कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥ 20 ।।
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।   
अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ 21 ।।

 

व्याख्या :-  अब संजय कहता है कि हे राजन् धृतराष्ट्र ! इसके बाद कपिध्वज ( कपि की आकृति लगे झंडे वाला रथ ) अर्जुन शस्त्र प्रहार के लिए तैयार खड़ी कौरव सेना के सामने अपने धनुष को उठाकर श्रीकृष्ण को कहता है कि हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले जाकर खड़ा कर दीजिए ।

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