तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥ 26 ।।
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् ॥ 27 ।।
व्याख्या :- तब अर्जुन ने दोनों सेनाओं में युद्ध की इच्छा से इकठ्ठे हुए अपने चाचा- ताऊओं, दादा- परदादों, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, बेटों, पौत्रों ( पोतों ), मित्रों, ससुरों व स्नेहियों को देखा । उन सभी सगे – संबंधियों को देखकर कुन्तीपुत्र अर्जुन ने अत्यन्त करुणा भरे स्वर में कहा ।
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत् ।
अर्जुन उवाच
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥ 28 ।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ॥ 29 ।।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥ 30 ।।
व्याख्या :- हे कृष्ण ! युद्ध करने की इच्छा से यहाँ पर इकठ्ठे हुए इन सभी स्वजनों ( सगे – संबंधियों ) को देखकर मेरे शरीर के सभी अंग शिथिल ( निष्क्रिय ) हो रहे हैं और मुख सुख रहा है, शरीर में कम्पन उत्पन्न हो रही है और मेरे शरीर के सभी रोंगटे ( शरीर के रोम छिद्रों पर स्थित छोटे- छोटे बाल ) खड़े हो रहे हैं ।
धनुष हाथ से छूटकर नीचे गिर रहा है, सारे शरीर में जलन उत्पन्न हो रही है । मुझसे खड़ा भी नहीं रहा जा रहा, मेरा मन भी भ्रमित हो रहा है ।
विशेष :- ऊपर वर्णित श्लोक संख्या अठाइस ( 28 ) से अर्जुन के अन्दर विषाद की उत्पत्ति होती है । यहीं से गीता के उपदेश का कारण पैदा होता है । जैसा कि हमने बताया था कि प्रत्येक कार्य पहले से ही कारण रूप में मौजूद होता है । इसी को आधार मानते हुए गीता के इस अमृत रुपी ज्ञान का जो कारण है वह अर्जुन का राग नामक क्लेश के कारण उत्पन्न हुआ मोह है । जिससे वह अपने सामने युद्ध के लिए आये योद्धाओं में अपने ही सगे- संबंधियों को देखकर विषादग्रस्त हो जाता है । इसी आधार पर इस अध्याय का नाम अर्जुनविषाद योग पड़ा । ठीक इससे पहले अर्जुन भी अपने मन में युद्ध की प्रबल इच्छा के साथ कुरुक्षेत्र के मैदान में आया था । लेकिन जैसे ही वह दोनों सेनाओं में अपने ही चाचा- ताऊओं, दादा- परदादों, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, बेटों, पौत्रों ( पोतों ), मित्रों, ससुरों व स्नेहियों को देखता है तो वैसे ही उसके भीतर इन सबके प्रति राग उत्पन्न हो उठता है । जिससे उसको लगता है कि इन सबके साथ युद्ध करना न्यायसंगत नहीं है । जबकि अर्जुन के जन्म से लेकर उसकी शिक्षा- दीक्षा सभी क्षत्रिय वर्ण के अनुसार हुई थी । इसके अलावा इस युद्ध से पहले भी अर्जुन अनेक युद्ध लड़ चुका था और उन सभी युद्धों में उसने विजय प्राप्त की थी । लेकिन जैसे ही महाभारत के युद्ध के मैदान में अपने स्नेहियों को ही अपने सामने देखा वैसे ही अर्जुन के भीतर की करुणा प्रबल हो उठी । अपने मोह के वशीभूत होकर अर्जुन वह सब परिस्थितियाँ भी भूल गया जिनकी वजह से उनको यह युद्ध लड़ने के लिए विवश होना पड़ा । इसी युद्ध में न्यायप्रिय व अत्यंत शान्त स्वभाव वाले राजा युधिष्ठिर भी युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार खड़ा था । लेकिन उग्र क्षत्रिय स्वभाव वाला अर्जुन मोह के वशीभूत होकर अवसादग्रस्त हो गया । यहाँ पर यह विचारणीय विषय है कि यदि अर्जुन के भीतर राग उत्पन्न नहीं हुआ होता तो क्या गीता के उपदेश की आवश्यकता थी ? मेरे मतानुसार उत्तर नहीं ही होना चाहिए । क्योंकि जब कारण ही समाप्त हो जाएगा तो कार्य कैसे सम्भव है । जब तक तिल ही नहीं होगा तो तेल कहाँ से निकलेगा । ठीक इसी प्रकार जब अर्जुन को अपने स्वजनों से किसी प्रकार का मोह नहीं होता तो अवसाद कैसे होता और यदि अर्जुन को अवसाद नहीं होता तो फिर उस अवसाद को दूर करने के लिए श्रीकृष्ण को गीता के उपदेश की आवश्यकता कैसे पड़ती ? अतः गीता के इस उपदेश का कारण अर्जुन का अपनो के प्रति राग अथवा मोह ही है ।
परीक्षा की दृष्टि से :- ऊपर वर्णित अवसादग्रस्त अर्जुन के लक्षणों को परीक्षा में पूछा जा सकता है । अतः विद्यार्थी इनको अच्छी प्रकार से याद कर लें ।
Thank you sir
Prnam Aacharya ji… Very nicely elaborated
Dr sahab nice explain about arjun conditions.