भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् ।। 19 ।।

 

शब्दार्थ :- भव ( संसार ) प्रत्यय ( यथार्थ ज्ञान / कारण ) विदेह ( शरीर रहित ) प्रकृतिलयानाम् ( मूल प्रकृति को जानने वाले नाम के योगी )

 

सूत्रार्थ :-  संसार का यथार्थ ज्ञान  अर्थात सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, आकाश, सुख – दुःख का विवेकपूर्ण चिंतन  करने से जिस ज्ञान की उत्पत्ति होती है । उसे भवप्रत्यय  नामक असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं । उस यथार्थ ज्ञान को प्राप्त होंने पर योगी अपनी देह  के अभिमान  से रहित होकर मूल प्रकृति  में लीन हो जाता है । समाधि की ऐसी अवस्था को प्राप्त योगियों को क्रमशः विदेह योगी  व प्रकृतिलय योगी  कहते हैं ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में विदेह  और प्रकृतिलय  योगियों की भवप्रत्यय  नामक असम्प्रज्ञात समाधि  का वर्णन किया गया है ।

भवका अर्थ है संसार । इस संसार में ग्रह, नक्षत्र, प्राणी, विषय भोग की वस्तुएँ, सभी प्रकार के सुख- दुःख आदि का यथार्थ  ( सही- सही ) ज्ञान होने को  भवप्रत्यय समाधि  कहते हैं ।

 

विदेह योगी :-  विदेह योगी वह होते है जिन्होंने यथार्थ ज्ञान  से अपने शरीर, इन्द्रियों, व अन्य स्थूल तत्वों का विशेष रूप से साक्षात्कार  करके अपने शरीर, इन्द्रियों व स्थूलभूतों का कर्ता ईश्वर  को मान लेता है । इस प्रकार वह अपनी देह  के अभिमान  ( अहंभाव ) से रहित हो चुके होते हैं । ऐसे योगियों को विदेह योगी  कहा जाता है ।

 

विदेह योगी का अर्थ यह नही है कि जिनकी देह  ( शरीर ) ही नही होता । क्योंकि समाधि  की प्राप्ति कभी भी बिना देह अर्थात शरीर के नही हो सकती । इसलिए विदेह का अर्थ मात्र इतना ही है कि योगी स्वम को कर्तापन  से रहित समझने लगता है । अर्थात देह के अभिमान  से मुक्त हो जाता है ।

 

उदहारण स्वरूप :-  आज हम समाज में अनेक प्रकार के लोगों को देखते हैं जो कि दूसरों की सेवा  करने में हमेशा तत्पर रहते हैं । यें मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं – पहले वो होते हैं जो किसी की सहायता तो कर देंगे पर उसका श्रेय  लेने के साथ- साथ जिसकी सहायता की है उसके ऊपर अहसान  भी दिखाएंगे । ऐसे लोग अपने आप को ही उस कार्य का कर्ता  मानकर समाज में प्रतिष्ठा  (  मान- सम्मान ) प्राप्त करने का प्रयास करते रहते हैं । ऐसे लोग समाज में ज्यादा पाए जाते हैं ।

 

दूसरे प्रकार के लोग वें होते हैं जो किसी की भी  सहायता बिना किसी स्वार्थ  या प्रतिष्ठा  प्राप्ति के करते हैं । और स्वंम को उस कार्य का कर्ता  न मानकर ईश्वर  को उसका कर्ता  मानते हैं । न ही तो यें व्यक्ति किसी तरह का श्रेय  लेते हैं । और न ही इनको किसी प्रकार के मानसम्मान  की लालसा होती है ।

यह कर्तापन  के अहंभाव  से मुक्त होते हैं । आप सभी ने समाज में ऐसे भी बहुत से लोगों को देखा होगा ।

 

यें जो दूसरे प्रकार के लोगों की स्थिति होती है ठीक ऐसे ही विदेह योगियों  की स्थिति होती है । वह भी इस देह और उससे होने वाले कार्यों का कर्ता ईश्वर  को मानकर उसकी ही उपासना में अपने आप को समाधिस्थ  करने का प्रयास करते हैं । किसी भी तरह का देह  का अभिमान  उनको नही होता है । ऐसे योगियों को ही विदेह योगी  कहा गया है ।

 

प्रकृतिलय योगी :- जो योगी साधक मूल प्रकृति  ( 25 तत्वों ) को भली- भाँति जानकर उसका साक्षात्कार  कर लेते हैं । तब वह साधक अपने आप को प्रकृति में लीन  कर देते हैं । इस प्रकार से प्रकृतिलय  करने वाले साधक प्रकृतिलय योगी  कहलाते हैं ।

 

इस भवप्रत्यय  नामक समाधि  में योगी कैवल्य  ( परमानन्दस्वरूप ) जैसा अनुभव करता है । जब तक कि उसकी यह समाधि भंग नही हो जाती । कैवल्य अवस्था  में ही परम सुख की अनुभूति होती है । इसके अतिरिक्त जो सुख है वह स्थायी नही है  क्योंकि उसमे दुःख  का मिश्रण  ( मिलावट ) होता है ।

 

भवप्रत्यय समाधि के कारण :-

इस भवप्रत्यय समाधि  का मुख्य कारण पूर्व जन्म  की योग साधना होती है । जो योगी साधना के अन्तिम चरण  में थे लेकिन किसी कारण से उनका शरीर छूट  ( मृत्यु हो ) गया । साथ ही मोक्षशास्त्रों  के अध्ययन व सत्संग  का (  पूर्व जन्म का ) प्रभाव भी इस समाधि  की प्राप्ति में सहयोगी होते हैं ।

लेकिन इसका अर्थ यह बिलकुल भी नही है कि इस जन्म में उनको किसी प्रकार का प्रयास  या पुरुषार्थ  नही करना पड़ता । यह केवल कारण मात्र है । उसको पुनः प्राप्त करने के लिए फिर से योग साधना  का अनुसरण  योगी को करना ही पड़ता है । तभी उसकी पूर्व जन्म की साधना फलीभूत  होती है ।

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  1. ॐ गुरुदेव*
    बहुत सुन्दर व्याख्या की है आपने।पढ़कर हृदय अति आनंदित हुआ। ईश्वर से प्रार्थना है कि आप ऐसे ही हम जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन करते रहें।
    आपको शत _शत नमन ।

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