तज्ज: संस्कारोंऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी ।। 50 ।।
शब्दार्थ :- तज्ज, ( उससे उत्पन्न होने वाला ) संस्कार:, ( विचार ) अन्य, ( दूसरे ) संस्कारो, ( विचारों को ) प्रतिबन्धी, ( रोकने वाला होता है । )
सूत्रार्थ :- उस ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न होने वाला संस्कार या विचार अन्य सभी दूसरे व्युत्थान अर्थात परेशान करने वाले संस्कारों या विचारों को रोक देता है ।
व्याख्या :- मनुष्य अपने जीवन में जो भी सोचता है, या अनुभव करता है । जितनी घटनाएं उसके जीवन में घटती हैं । वह सब संस्कार रूप में या बीज रूप में हमारे अन्त: करण में समाहित अर्थात वह संग्रहित होती रहती हैं । यही मनुष्य का कर्माशय अर्थात कर्मों का संचय होता है ।
चित्त में उठने वाले कुछ संस्कार या विचार साधना को भंग करने वाले होते हैं । वहीं कुछ संस्कार ऐसे भी होते है जो साधक को समाधि की ओर अग्रसर करते हैं । इस प्रकार के संस्कार जो साधक को समाधिस्थ करते हैं वह ऋतम्भरा प्रज्ञा के जागृत होने पर ही आते हैं । इन संस्कारों के मजबूत होने से जो अन्य बाधा पहुँचाने वाले संस्कार होते हैं उनको यह ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न होने वाला संस्कार रोक देता है ।
कई बार साधक स्वंम को इन संस्कारों के अधीन समझने लगता है । लेकिन वास्तव में यह संस्कार ही हमारे अधीन होते हैं । जब साधक पूरी दृढ़ता व विश्वास से इन अच्छे संस्कारों को ऊपर उठाता है तो बाकी के परेशानी पैदा करने वाले संस्कार स्वंम ही समाप्त हो जाते हैं । यह सब ऋतम्भरा प्रज्ञा के जागृत होने पर स्वंम ही होने लगता है । इसको करना नहीं पड़ता ।
इस प्रकार ऋतम्भरा प्रज्ञा के जागने से हमारा चित्त पूर्ण रूप से निर्मल हो जाता है । और उन सभी संस्कारों को रोकने में समर्थ हो जाता है जो साधना में बाधा उत्पन्न करते हैं ।
?Prnam Aacharya ji! Ritambhara Prgya ke mahattav ke is sunder vrnan ke liye Aapka bhut dhanyavad! ?
Sir u made every sutra so easy thanku sir??
Thank you Sir
Thank you sir
Thanks g
Accurate benefits of Ritambara pargya guru ji.